पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५१५

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(४२२) सूरसागर।. रूपनिधान॥२४॥सारंगारीझत ग्वालरिझावत श्यामामुरलि वजावत सखन बोलावत सुवल सुदामा लैलै नाम । हँसत सखा सब तारी दैदै नाम हमारो मुरली लेत । श्याम. कहत अब तुमहु बोला बहु अपने करते ग्वालन देत ॥ मुरली लैलै सवै वजावत काहूपै नहिं आवै रूप। सूरश्याम तुम्हरे हि मुख बाजत कैसे देखो राग अनूप॥२६॥ टोडी ॥हरि वरावार वेणु कौन बजावै ।जगजीवन विदित मुनिनाचन वेणु सो बजावै चतुरानन पंचानन सहसानन ध्यावै ॥ ग्वाल वाल लिए यमुना कछु वच्छ चरावै । सुर नर मुनि अखिल लोक कोउ न पार पावै ॥ तारन तरन अगणित गुण निगम नेति गावै ॥ तुमको यशुमति आँगन अपने दैकरताल नचावै । सूरदास प्रभु कृपाधाम हैं भक्तन वश्य कहाँवै ॥२६॥ अथ परस्पर गोपिका वचन विरह अवस्था ॥ टोडी।मुरली सुनत देहगति भूली। गोपी प्रेम हिंडोरे झूली ॥ कबहूं चकृत होहिं सयानी । श्वेदचलै द्रवै जैसे पानी ॥ धीरज धरि इक इक हि सुनावहि । यह काहकै आपुहि विसरावहि ॥ कवहूँ सुधि कवहूँ विरसाई । कवहूं मुरली नाद समाई ॥ कवहूं तरुणी सब मिल बोलें। कवहूं रहैं धीर नहिं डोलैं । कबहुँ चलें कवहूँ फिरि आवै । कबहुँ लाज तजि लाज लजावै । मुरली श्याम सुहागिनि भारी। सूरदास कहत ऐसी ब्रजनारी ॥२७॥ विहांगरो ॥ अधर धरि मुरली श्याम बजावत । सारंग गौरी नट नारायण कार कै गौरी सुरहि सुनावत ॥ आए भए रस वश ताहीके औरन वश करवावत । ऐसो को त्रिभुवन जल थलों जो शिर नहीं धुनावत ॥ सुभग मुकुट कुंडल मणि श्रवणन देखत नारिन भावत । सूरदास प्रभु गिरिधर नागर मुरलीधरन कहावत ॥२८॥ सारंग ॥ अधर रस मुरली सौतिन लागी । जा रसको पटरूप वपु कीन्हो सोरस पीवत सभागी ॥ कहां रही कहते इह आई कोने या हि वोलाई । सूरदास प्रभु हमपर ताको कीने सवति बनाई ॥२९॥. केदारो ॥मुरली मोहनी भई।करी जु करनि देव दनुजान प्रति वह विधि फेरि ढई।वह पय निधि इन ब्रज सागर मथि प्याइ पियूष नई। सिंधु सुधा हरि वदन इंदुकी इह छल छीन लईआपु अचै अचवाइ सप्तसुर कीन्हे दिगविजई एकहि पुट उत अमृत सूर इत मदिरा मदनमई ॥३०॥जोपै मुरलीको हित मानौ तौ तुम बार बार ऐसे कहि मनमें दोष न आनौ। वासर श्याम विरह अहि यासित हूजत मृतक समान। लेति जिवाय मंत्र सुरस कही करति नडर अपमान । निज संकेत खिलावात अजहूँ मिलवति सारंग पानि । शरद निशा रसरास करायो बोलि बोलि मृदुवानि ॥ परकृत शील सुकृत उपमा रमितासों यो कत कहिए। परमानंद सूरदास क्यों मेटि कृत न्याइ इतो दुख सहिए।३१।मलार।अधरमधु कतक मुई हमराखि। संचित किए रही शर घासो सकी न सकुचनि चाखि। शशि सहि शीत जाइ यमुनातट दीनवचन दिन भाषि । पूजि उमापतिको वर पायो मनही मन अभिलाषि॥ सोइ अब अमृत पीवति मुरली सवहिनके शिरनाखि। लिए ठंडाइनिडर सुनि सूरज धेनु धूरिदै आँखि॥३२॥ नट सखीरीमाधोहि दोष न दीजै । जो कछु करि सकिये सोई या मुरलीको अव कीजै॥वारवार वन वोलि मधुर ध्वनि अति प्रतीति उपजाइ। मिलि श्रवणन मनमोहि महारस तनकी सुधि विसराइं।मुख मृदु वचन कप ट अंतर गति हम यह वात न जानी। लोक वेद कुल छाडि आपनो जोइ. जोइ कही सुमानी ।। अजहूँ वह प्रकृति याके जिय लुब्धक संग जु.साधी । सूरदास क्योंही करुणामय परति नहीं आरा | धी३३मुरली तो यहआहिवांसकी।बाजत श्वास परत नहिं जानति भई रहति पिय पासकीचितनको चितहरति अचेतनि भूखी डोलत मासकी।सूरदास सब ब्रजवासिन सों लिये रहति है गासकी३४॥ जादिनते मुरली कर लीन्ही ।तादिनते श्रवणन सुनि सुनि सखि मनकी बात सबैलै दीन्ही लोक वेद ।