रूपनिधान॥२४॥ सारंग ॥ रीझत ग्वालरिझावत श्याम। मुरलि बजावत सखन बोलावत सुबल सुदामा लैलै नाम॥ हँसत सखा सब तारी दैदै नाम हमारो मुरली लेत। श्याम कहत अब तुमहु बोलावहु अपने करते ग्वालन देत॥ मुरली लैलै सबै बजावत काहूषै नहिं आवै रूप। सूरश्याम तुम्हरेहि मुख बाजत कैसे देखो राग अनूप॥२५॥ टोडी ॥ हरि बराबरि वेणु कौन बजावै। जगजीवन विदित मुनिनाचन वेणु सो बजावै चतुरानन पंचानन सहसानन ध्यावै॥ ग्वाल बाल लिए यमुना कछु वच्छ चरावै। सुर नर मुनि अखिल लोक कोउ न पार पावै॥ तारन तरन अगणित गुण निगम
नेति गावै॥ तुमको यशुमति आँगन अपने दैकरताल नचावै। सूरदास प्रभु कृपाधाम हैं भक्तन वश्य कहाँवै॥२६॥ अथ परस्पर गोपिका वचन विरह अवस्था ॥ टोडी ॥ मुरली सुनत देहगति भूली। गोपी प्रेम हिंडोरे झूली॥ कबहूं चकृत होहिं सयानी। श्वेदचलै द्रवै जैसे पानी॥ धीरज धरि इक इकहि सुनावहि। यह काहकै आपुहि बिसरावहि॥ कबहूँ सुधि कबहूँ बिरसाई। कबहूं मुरली नाद समाई॥ कबहूं तरुणी सब मिल बोलैं। कबहूं रहैं धीर नहिं डोलैं॥ कबहुँ चलैं कबहूँ फिरि आवै। कबहुँ लाज तजि लाज लजावै॥ मुरली श्याम सुहागिनि भारी। सूरदास कहत ऐसी ब्रजनारी॥२७॥ विहांगरो ॥ अधर धरि मुरली श्याम बजावत। सारंग गौरी नट नारायण करिकै गौरी सुरहि सुनावत॥ आषु भए रस वश ताहीके औरन वश करवावत। ऐसो को त्रिभुवन जल थलमें जो शिर नहीं धुनावत॥ सुभग मुकुट कुंडल मणि श्रवणन देखत नारिन भावत। सूरदास प्रभु गिरिधर नागर मुरली धरन कहावत॥२८॥ सारंग ॥ अधर रस मुरली सौतिन
लागी। जा रसको षटरूप वषु कीन्हो सोरस पीवत सभागी॥ कहां रही कहँते इह आई कौने याहि बोलाई। सूरदास प्रभु हमपर ताको कीने सवति बजाई॥२९॥ केदारो ॥ मुरली मोहनी भई। करीजु करनि देव दनुजान प्रति वह विधि फेरि ढई॥ वह पय निधि इन ब्रज सागर मथि प्याइ पियूष नई। सिंधु सुधा हरि बदन इंदुकी इह छल छीनि लई॥ आपु अचै अचवाइ सप्तसुर कीन्हे दिग विजई। एकहि षुट उत अमृत सूर इत मदिरा मदनमई॥३०॥ जोपै मुरलीको हित मानौ॥ तौ तुम बार बार ऐसे कहि मनमें दोष न आनौ। वासर श्याम विरह अहि ग्रासित हूजत मृतक समान। लेति जिवाय मंत्र सुरस कही करति नडर अपमान॥ निज संकेत खिलावात अजहूँ मिलवति सारँग पानि। शरद निशा रसरास करायो बोलि बोलि मृदुवानि॥ परकृत शील सुकृत उपमा रमितासों यो कत कहिए। परमानंद सूरदास क्यों मेटि कृत न्याइ इतो दुख सहिए॥३१॥ मलार ॥ अधर मधु कतक मुई हमराखि। संचित किए रही शर घासो सकी न सकुचनि चाखि॥ शशि सहि शीत जाइ यमुनातट दीनवचन दिन भाषि। पूजि उमापतिको वर पायो मनही मन अभिलाषि॥ सोइ अब अमृत पीवति मुरली सबहिनके शिरनाखि। लिए छँडाइ निडर सुनि सूरज धेनु धूरिदै आँखि॥३२॥ नट ॥ सखीरी माधोहि दोष न दीजै। जो कछु करि सकिये सोई या मुरलीको अब कीजै॥बारबार वन बोलि मधुर ध्वनि अति प्रतीति उपजाइ। मिलि श्रवणन मनमोहि महारस तनकी सुधि बिसराइ॥ मुख मृदु वचन कपट अंतर गति हम यह बात न जानी। लोक वेद कुल छाँडि आपनो जोइ जोइ कही सुमानी॥ अजहूँ वह प्रकृति याके जिय लुब्धक संग जु साधी। सूरदास क्योंही करुणा मय परति नहीं आराधी॥३३॥ मुरली तो यह आहिबांसकी। बाजत श्वास परत नहिं जानति भई रहति पिय पासकी। चितनको चितहरति अचेतनि भूखी डोलत मासकी॥ सूरदास सब ब्रजवासिन सों लिये रहति है गासकी॥३४॥ जादिनते मुरली कर लीन्ही। तादिनते श्रवणन सुनि सुनि सखि मनकी बात सबै लै दीन्ही। लोक वेद
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सूरसागर।
