पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५२१

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- बलकै मारु तुरतही लै आवड अब आज ॥ अतिगर्वित लै कह्यो असुरभट कितिक बात यह आ हि । कहमा जीवत धरिलावों एक पलकमें ताहि ॥ आज्ञापाइ असुर तव धायो मनमें यह अव गाहि । देखौंजाइ कौन वह ऐसे कंस डरतहै जाहि ॥ मायाचरित करि गोपपुत्र भयो ब्रजसन्मुख गयो धाइ । बल मोहन ग्वालन बालक सँग खेलत देखेजाइ ॥धाइ मिल्यो कोउ रूप. निशाचर हलधर सैन बताइ । मन मोहन मनमें मुसुकाने खेलत फलनि जनाइ ॥ द्वै बालक वैगरि सया- ने खेल रच्यो ब्रजखोरि । और सखा सब जुरि जुरि ठाढे आपु दनुज सँगजोरि॥ फलको नाम बु. झावुन लागे हरि कहि दियो अमोरि । कंधचढे जिमि सिंह महावल तुरतहि वीच मरोरि ॥ तब के शी दै वरवधु काछयो लैगयो पीठि चढाइ । उतरि परे हरि ताऊपर ते कीन्हों युद्ध अघाइ । दाउँ घाउ सब भांति करतहै तब हरि बुद्धि उपाइ । एक हाथ मुख भीतर नायो पकरिकेश धरि जाइ।। चहुँघा फेरि असुर गहि पटक्यो शब्द उठयो आघात । चौकि परयो कंसासुर सुनिकै भीतर चल्योपरात ॥ यह काई नहीं भलो ब्रजजनम्योयाते बहुत डरात। जान्यो कंस असुर गहि पटक्यो नंदमहरके तात ॥ और सखा रोवत सब धाए आइ गई नर नारि । ग्वालरूपसँग खेलत हरिके लैगयो कांधे डारि ॥ धाए नंद यशोदा धाई नितप्रति कहा गुहारि । नाजानिये आहिधों को यह कपट रूप वपुधारि ॥ यशुमति तब अकुलाइ परी गिरि तनुकी सुधि नरहाइ। नंदपुकारत आरत व्याकुल टेरत फिरत कन्हाइादैत्य संहारि कृष्ण तहां आए ब्रजजन मरत जिवाइ । दौरि नंद उर. लाय लियो सुत मिली यशोदामाइ ॥ खेलत रह्यो संग मिलि मेरे लै उडिगयो अकास । आपुनही, गिरि परयो धरणिपर मैं उवरयो तेहि पास ॥ उरडरात जिय वात कहत उहि आएहैं करिनाश । सूरश्याम घर यशुमति लैगई ब्रजजन मनहि हुलास।।७६॥ अथ भौमासुर वध ॥ विलावल ॥ हरि ग्वालन. मिलि खेलन लागे वनमें आँखिमुचाइ । शिशुहोइ भौमासुर तहाँ आयो काह जान नपाइ॥ ग्वालरूप होइ खेलन लाग्यो ग्वालनको लैजाइ चुराइ । धरै दुराइ कंदरा भीतर जानी वात कन्हाइ ॥ गुदी चांपिक ताहि निपात्यों परयो घराणे मुरछाइ। सूरवालन मिलि हरिगृह..] आए देव दुंदुभी बजाइ ॥७७ ॥कान्हरो।कहाति यशोदा वातं सयानी। भावी नहीं मिटै काहूकी। कर्ताकी गति काहु न जानी॥ जन्म भयो जबते ब्रज हरिको कहा कियो करि करि रखवानी। कहां कहांते श्याम नउवरयो केहि राख्योताअवसर आनी॥ केशी शकट अरु वृषभ पूतना तृणा वर्तकी चलति कहानी । को मेरे पछिताइ मरे अब अनजानत सव करी अयानी ॥ लैबलाई छाती सों लाए श्याम राम हरपति नँदरानी। भूखे भए प्रात अधखातहि ताते आसु बहुत पछि तानी ॥ रोहिणि तुरत न्हवाइ दुहुनको भोजनको माता अतुरानी.ल्याई परसि दुहुनकी थारी जेवत बल मोहन रुचि मानी ॥ माँगि लियो शीतल जस अंचयो मुख धोयो चरणन लै पानी। वीरा खात देखि दोउ वीरा दोउ जननी मुख देखि सिहानी ॥ रत्न जटित पलका पर पौढे वरणि नजाइ कृष्ण रजधानी । सूरदास कछु जूठनि मांगत तब पाऊं कहि दीजै बानी ॥७८॥ ॥ बिलावल ॥ नित्यधाम वृंदावन श्याम । नित्य रूप राधा ब्रजवाम ॥ नित्य रास जल नित्य । विहार । नित्य मान खंडिता भिसार ॥ ब्रह्मरूप एई करतार । करन हरन त्रिभुवन संसार ॥ नित्य कुंज सुख नित्य हिंडोर । नित्यहि त्रिविध समीर झकोर ॥ सदा वसंत रहत जहँ बास । सदा हर्ष. जहँ नहीं उदास । कोकिल कीर मादा तहँ रोर । सदा रूप मन्मथ चित चोर ॥ विविध सुमन वन फूले डार । उन्मत मधुकर भ्रमत अपार । नव पल्लव बन सोभा एक । विहरतः हरि सँग संखी अनेक ॥ कुहकुह कोकिलानाइ । सुनि मुनि नारि भई हरपाइ ॥ बार वार सो हरिहि सुनावति ।