पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५२३

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सूरसागर। (४३०) गहै दंतातुरत गए हरिलै मनाय ।हरपि मिले उर कंठ लायं । दुख डारचो तुरतहि भुलाय । सोसुख दुहुँके उर नमायाऋतुवसंत आगमन जानि । नारिन राखो मानवानि ॥ सूरदास प्रभु मिले आनि । रसराख्यो रतिरंग ठानि||८|आयो जान्योहरि ऋतुवसंता ललनासुख दीन्हो तुरंत ।। फले वरनर सुमन पलास । ऋतुनायक सुखको विलास ॥ संगनारि चहुँ आस पास । मुरली अमृत करत भास ॥श्यामाश्याम विलास एका सुखदायक गोपी अनेक ॥ तजतनहीं काहू छनेक । अकल निरंजन विविध भेक ॥ फागुरंग रस करत श्याम । युवतिन पूरन करन काम ।। वासरह सुख देत याम । सूरझ्याम बहु कंत वाम ॥८९॥ देखत नव वजनाथ आजु अति उपजतु है अनुराग । मानहु । मदन वसंत मिलै दोउ खेलत फूले फाग ॥ झांझि झालरिनि झरिनिसा डफ भँवर भोर गुंजार । मानहु मदन मंडली रचिपुर वीथिनि विपिन विहार ॥ तुम गण मध्य पलाश मंजरी मुदित अनि की नाई। अपने अपने मेरनि मानो उनि होरी हरपि लगाई ॥ केके काग कपोत और खग करत कुलाहल भारी मानहुँ लैलै नाउ परस्पर देत दिवावत गारीकुंज कुंज प्रति कोकिल कूजति । अति रस विमल बढ़ी। मानो कुलवधूनि लजाभय गृह गृह गावति अटाने चढी । प्रफुलित लता जहाँ जहँ देखत तहाँ तहाँ अलि जात । मानहु सबहिनमें अवलोकत परसत गणिकागात ॥ लीन्हें पुहुप पराग पवनकर क्रीडत चहुँ दिशधाइ । रस अनरस संयोग विरहिनी भरि छोडति मनभाइ । बहुविधि सुमन अनेक रंगछवि उत्तम भांति धरे । मानो रतिनाथ हाथसो सवही. लैलै रंगभरे। और कहालगि कहौं कृपानिधि वृंदाविपिन विराज । सूरदास प्रभु सब सुख क्रीडत श्याम तुम्हारे राज ॥९०॥ सुंदर वर संग ललनाहो विहरत वसंत समय ऋतु आइ । सकल शृंगार वनाइ व्रजसुंदरि कमलनयनपै लाइ . ।। सरित शीतल वहत मंदगति रवि उत्तर दिशि आयो । अति रसभरी कोकिला बोली विरहिनि विरह जगायो॥ द्वादश वन रतनारे देखियत चहुँ दिशकम. फूले । मौरे अंबुवा और द्रुम वेली मधुकर परिमल भूले । इत श्रीराधा उत श्रीगिरिधर इत गोपी । उत ग्वालाखेलत फागु रसिक व्रजवनिता सुंदर श्यामतमालास्वावासाखि जवारा कुमकुमा छिरकत भरि केसरिपिचकारीउडत गुलाल अवीर जोरतब विदिशदीप उजियारीताल पखावज वीनबाँसुरी डफ गावत गीत सुहाए।रसिक गोपाल नवल ब्रजवनिता निकासि चौहटे आये।झुमिझूमि झुमक सब ।। गावति बोलति मधुरी वानी । देति परस्पर गारि मुदितमन तरुनी बाल सयानी ॥ सुरपुर नर पुर नाग लोकपुर सवही अति सुखपायो । प्रथम वसंत पंचमी लीला सूरदास यशगायो॥९॥सुंदरवर संग ललना विहरी वसंत सरस ऋतुआई। लैलै छरी कुँवरि राधिका कमलनयन परधाई ॥ द्वादश वन रतनारे देखियत चहुँदिश केसूफूले । मौरे अँजुवा और द्रुम वेली मधुकर परिमल भूले ॥ सरिता शीतल वहत मंदगति रवि उत्तरदिशिआयो । प्रेम उमंगि कोकिला बोली विरहिनि विरह ।। जगायो।ताल मृदंग वीन वाँसरि डफ गावत मधुरी वानी।देत परस्पर गारि मुदितद्वै तरुणीवाल, सयानी ॥ सुरपुर नरपुर नागलोक जल थल क्रीडारस पावै । प्रथम वसंत पंचमी वाला सूरदास गुणगावै॥९२॥ खेलत नवल किसोर किसोरी। नंदनंदन वृषभानु तनय चित लेत परस्पर चोरी ॥ औरौ सखी जलन विग सोभित सकल ललित तनु गावात होरी । तिनकी नख शोभा देखतही. तरनि नाथहूकी मति भोरी ।। एक गोपाल अवीर लिए कर इक चंदन इक कुमकुमा रोरी। उपरा उपर छिरकि रस सर भरि बहु कुल क्रीडा परमिति फोरी ॥ देति अशीश सकल वज युवती युग युग अविचर जोरी । सूरदास उपमा नाह सूचत जो कछु कहो सुथोरी॥९३||श्रीहटगातरे ।