पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५२९

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सूरसागर। ... . .. .. .. . (४३६) अधर धरे मुख मुरली बजावत गावत श्रीरागरसाल।। मंद मंद मुसकानि सरोज मुख सोभा वरणी न जाइ । वाँकी भौहें तिरछी चितवनि चितवत लियो चुराइ ॥ अति लोने सोनेसे कुंडल कौने रचे हो सँवार। मनोकाम किल फंद बनाए फंदाहै मीन बजनारि ॥ शिर पगिया वीरा मुख सोहै सरस रसीले बोल। अति आधीन भई ब्रजवनिता वश कीने विनमोल ॥ कहा करौं देखे चिनु. सजनी. कल न परै पलपान । ग्वालन संग रंग भरयो भावत गावत आछी तान ।। ताते और कौन हितु मेरे सखिचलि नेकुदिखाय । मदनमोहन जूकी चरण रेणु पर सूरदास बलि जाय।॥१॥नटनारायण.. खेलत श्याम फाग ग्वालन संगाएक गावत एक नाचत एक करत बहु रंगााबीन मुरज उपंग मुरली झांझ झालरि तालापढत होरी बोलि गारी निरखिकै व्रजवाल।किनककलसन घोरि केसीर करलिये ब्रजनारि । जबहिं आवत देखि तरुनिन भजत दे किलकारि ॥ दुरि रही इक खोरि ललिता उत ते आवत श्याम । धरे भरि अंकवारि औचक धाय आय ब्रजवाम ।। बहुत ढीठो दै रहेहो जानवी अब आजाराधिका दुरि हँसति ठाढी निरखि पिय मुख लाजुलियो काहू मुरली करते कोउ गह्यो. पटपीत । शीश वेनी गुथि मांग पारे लोचन आणि करी अनीति ॥ गए करते झटकि मोहन नारि सब पछिताति । शीश ध्वनि कर मीजी बोलति भली लैगए भांति ॥ दाँव हम नाह लेन पायो वसन . लेती लाल । सूर प्रभु कहाँ जाउगे अब हमपरी यह ख्याल॥१६॥काफी।। मोहन गए आज तुम जाहु, दाँव हम लेहिंगीहोोलालन हमहि करे ने हाल उहै फल देहिंगीहो।आजुहि दाँव आपनो लेती भले गएहो भागि । हाहा करते पाँइन परते लेड्डु पीतांबर मांगि ॥ वेनी छोरत हँसत सखा सँग कहतः लेहु पट जाइ । सौह करतहो नंदबबाकी अपनी विपति कराइ । जोम लेहुँ पीतांवर अवहीं कहा देहुगे मोहि । इत उत युवती चितवन लागी रही परस्पर जोहि ॥ एक सखा हरि त्रिया रूपकार पठे दियो तिन पास । गयो तहां मिलि संग नियनके हँसति देखि पटवास ॥ मोहिं देहु राखौं दुरायके श्यामहि जिनि ले देहु । लियो दुराय गोद में राख्यो दाँव आफ्नो लेहु ॥ पीतांवर जिनि | देहु श्यामको यह कहि चमक्यो ग्वाल । सूरश्याम पट फेरत करसों चकित निरखि ब्रजवाल॥१६॥ चकित भई हरिकी चतुराईहिमहिं छली इन कुँअर कन्हाईकहा ठगोरी देखत लाईघिरवातहै कहि भली बनाई।एक सखी हलधर वपु काछचोचली नीलपट ओढे आछयोश्याम मिलन ताको तहां आए अयजकानि चले अतुराए॥मिले साँकरी ब्रजकी खोरी । ढूंकीरहीं जहाँ तहँ गोरी।।गह्यो धाइ । भुज दोउ लपटानी । दौरि परी सब संखी सयानी । निरखि निरखि तरुनी मुसकानी । एक निलजः । इकरही लजानी। कहारही करि संकोच दिवानी। अब इनकी जिनि राखौ कानी ॥ गारि नारि: संबं देहि सुहानी । नंदमहरलो जाति वखानी ॥ सुरश्याम उतरयो मुखवानी | गई लिवाई जहाँ. राधारानी ॥ १७॥ धनाश्रीमलार ॥ छैल छबीले मोहना जाके धुंधरंवारे केशरी । मोरमुकुट कुंडल. लखें करि लीन्हो नटवर भेषरीराखे भौंह मरोरिकैरी सुंदरनैन विशाल । निरखि हँसनि मुसकानि कोरी अतिहि भई बेहाल ॥ कीर लगावनि नासिका अधरबिंबते लाल । दशन चमक दामिनिह । तेरी श्याम हृदय वनमाल ॥ चिबुक चित्तके हरनहरी राजतः ललित कपोल । मारग गहि ठाटो । रहैरी अरु बोलत मीठे बोल ॥ चंदन खौरि विराजैरी श्यामलभुजा सुचार । ग्वालसखा सब सँग लिएरी वह करत गुलालन मार ॥ इक भाजत इक भरत हैरी कुसुमवरन रंग घार । सोधेकी चमची भलीरी खेलत-ब्रजकी खोरि ।। सुनत चली सबधाई कैरी वै देखन नंदकुमार। फाग साँझसी. खैरहोरी गड़े उड़ि गगन अपार ॥ मिलि तरुनी जहाँ. जाइकैरी जहाँ विरहत फागु:गोपाल सुरश्याम सुख देखिकैरी विसरयो तनु तेहि कालः ॥ १८॥ गौरी ॥ घर घरते सुनि गोपी. हरिमुख