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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५२९

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सूरसागर।


अधर धरे मुख मुरली बजावत गावत श्रीरागरसाल॥ मंद मंद मुसकानि सरोज मुख सोभा वरणीन जाइ। वाँकी भौहें तिरछी चितवनि चितवत लियो चुराइ॥ अति लोने सोनेसे कुंडल कौने रचेहो सँवारि। मनोकाम किल फंद बनाए फंदाहै मीन ब्रजनारि॥ शिर पगिया वीरा मुख सोहै सरस रसीले बोल। अति आधीन भई ब्रजवनिता वश कीने बिनमोल॥ कहा करौं देखे बिनु सजनी कल न परै पलप्रान। ग्वालन संग रंग भरयो भावत गावत आछी तान॥ ताते और कौन हितु मेरे सखिचलि नेकुदिखाय। मदनमोहन जूकी चरण रेणु पर सूरदास बलि जाय॥१४॥ नटनारायण ॥ खेलत श्याम फाग ग्वालन संग। एक गावत एक नाचत एक करत बहु रंग॥ बीन मुरज उपंग मुरली झांझ झालरि ताल। पढत होरी बोलि गारी निरखिकै ब्रजबाल॥ कनककलसन घोरि केसीर करलिये ब्रजनारि। जबहिं आवत देखि तरुनिन भजत दै किलकारि॥ दुरि रही इक खोरि ललिता उतते आवत श्याम। धरे भरि अँकवारि औचक धाय आय ब्रजवाम॥ बहुत ढीठो दै रहे हो जानवी अब आजु। राधिका दुरि हँसति ठाढी निरखि पिय मुख लाजु॥ लियो काहू मुरली करते कोउ गह्यो षटपीत। शीश वेनी गुथि मांग पारे लोचन आजि करी अनीति॥ गए करते झटकि मोहन नारि सब पछिताति। शीश ध्वनि कर मीजी बोलति भली लैगए भांति॥ दाँव हम नहिं लेन पायो वसन लेती लाल। सूर प्रभु कहां जाउगे अब हमपरी यह ख्याल॥१५॥ काफी ॥ मोहन गए आज तुम जाहु दाँव हम लेहिंगीहो। लालन हमहि करे जे हाल उहै फल देहिंगीहो॥ आजुहि दाँव आपनो लेती भले गएहो भागि। हाहा करते पाँइन परते लेहु पीतांबर मांगि॥ बेनी छोरत हँसत सखा सँग कहत लेहु पट जाइ। सौंह करतहो नंदबबाकी अपनी विपति कराइ॥ जोमैं लेहुँ पीतांबर अबहीं कहा देहुंगे मोहि। इत उत युवती चितवन लागीं रही परस्पर जोहि॥ एक सखा हरि त्रिया रूपकरि पठै दियो तिन पास। गयो तहां मिलि संग त्रियनके हँसति देखि पटवास॥ मोहिं देहु राखौं दुरायके श्यामहि जिनि ले देहु। लियो दुराय गोद में राख्यो दाँव आपनो लेहु॥ पीतांबर जिनि देहु श्यामको यह कहि चमक्यो ग्वाल। सूरश्याम पट फेरत करसों चकित निरखि ब्रजवाल॥१६॥ चकित भई हरिकी चतुराई। हिमहिं छली इन कुँअर कन्हाई॥ कहा ठगोरी देखत लाई। धीरवतिहै कहि भली बनाई॥ एक सखी हलधर वषु काछयो। चली नीलपट ओढे आछयो॥ श्याम मिलन ताको तहां आए। अग्रजकानि चले अतुराए॥ मिले साँकरी ब्रजकी खोरी। ढूंकीरहीं जहाँ तहँ गोरी॥ गह्यो धाइ भुज दोउ लपटानी। दौरि परीं सब संखी सयानी॥ निरखि निरखि तरुनी मुसकानी। एक निलज इकरही लजानी॥ कहारही करि सँकोच दिवानी। अब इनकी जिनि राखौ कानी॥ गारि नारि सब देहि सुहानी। नंदमहरलों जाति बखानी॥ सुरश्याम उतरयो मुखवानी। गई लिवाई जहाँ राधारानी॥१७॥ धनाश्रीमलार ॥ छैल छबीले मोहना जाके घुंघरवारे केशरी। मोरमुकुट कुंडल लखें करि लीन्हो नटवर भेषरी॥ राखे भौंह मरोरिकैरी सुंदरनैन विशाल। निरखि हँसनि मुसकानि कोरी अतिहि भई बेहाल॥ कीर लगावनि नासिका अधरबिंबते लाल। दशन चमक दामिनिहू तेरी श्याम हृदय वनमाल॥ चिबुक चित्तके हरनहैंरी राजत ललित कपोल। मारग गहि ठाढो रहैरी अरु बोलत मीठे बोल॥ चंदन खौरि विराजैरी श्यामलभुजा सुचार। ग्वालसखा सब सँग लिएरी वह करत गुलालन मार॥ इक भाजत इक भरत हैरी कुसुमवरन रँग घोरि। सोंधेकी चमची भलीरी खेलत ब्रजकी खोरि॥ सुनत चलीं सब धाइ कैरी वै देखन नंदकुमार। फाग साँझसी ह्वैरहोरी उड़ि उड़ि गगन अपार॥ मिलि तरुनी जहाँ जाइकैरी जहाँ विरहत फागु गोपाल। सुरश्याम सुख देखिकैरी बिसरयो तनु तेहि काल॥१८॥ गौरी ॥ घर घरते सुनि गोपी हरिमुख