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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५३१

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सूरसागर।


एक भाजत एक गाजत एक धावत एक पावत एक आवत मारि॥ एक हर्षत एक लरखत एक करत घातहिको लोचन गुलाल डारि सोंधे ढरकावै। एकफिरत संग संग एक एक न्यारे २ विहरत टरत दाँव दीबेको वै ज्यों नहिं पावै॥ एकगावत एकभावत एकनाचत एकराचत एककरत मृदंगताल गति जति उपजावै। एकवीणा एककिन्नर एकमुरली एकउपंग एकतुमर एक रखाव भांति सो दुरावै॥ एक पटह एक गोमुख एक आवझ एक झालरी एक अमृत कुंडली एक एक डफ एक करधारे। सूरज प्रभु बल मोहन संग सखा बहु गोहन खेलत वृषभानु पौरि लिए जात टारे॥२५॥ सावेरी ॥ सुनतही वृषभानु सुता युवती सब बोलाई। आए बलराम श्याम आए तजि काम वाम धामते आतुरसात नव बनाई॥ हरषत सब ग्वाल बाल अरस परस करत ख्याल एक मारत एक भाजत राजत वह जोरी। उतते निकसी कुमारि संग लिए विपुल नारि कोउ कोउ नव योवन भरि कोउ कोउ दिन थोरी॥ इत उत मुख दरश भए पिय पूरन काम कियो मानो शशि उदय भयो आनंदित चकोरी। उतजेरी धरे ग्वाल बांसन इत परी मार यह छबि नहिं वार पार सोर झोर झोरी॥ उत होरी पढत ग्वार इत गारी गावात ए नंद नहिं जाए तुम महरि गुणनभारी। कुलटी उनते कोहै नंदादिक मनमोहै बाबा वृषभानुकीवै सूर सुनहु प्यारी॥॥२६॥ काफी ॥ श्रीराधा मोहन रंग भरेहो खेल मच्यो ब्रजखोरी। नागरि संग नारि गण सोहैं श्याम ग्वाल सँग जोरी॥ हरिलिए हाथ कनक पिचकारी सुरंग कुमकुमा घोरी। उतहि माट कंचन रँग भरिलै आई तिरिया जोरी॥ आतुरह्वै धाई उत नागरि इत बीचले सब ग्वाल। घेरि लई गहि खोरि साँकरी पकरे मदन गोपाल॥ गह्मो धाइ चंद्रावलि हँसिकै कह्यो भलेहो लाल। जिनि बलकरौ रहौ नेक ठाढे जुरि आई ब्रजबाल॥ आई हँसति कहति हरिएई बहुत करतहैं गाल। क्यों जू खबरि कहौ यह कीन्ही करत परस्पर ख्याल॥ काहू तुरत आइ मुख चूम्यो करसों छुयो कपोल। कोउ काजर कोउ बदन माडती हर्षहिं करहिं कलोल॥ कोउ मुरली लै लगी बजावन मनभावन मुखहेरि। किनहूँ लियो छोरि पटु कटिते वारति तनपर फेरि॥ श्रवणनलागि कहति कोउ बातैं बसन हरे तेइ आपषु। कालि कह्यो करिहौ कहा मेरो प्रगट भयोसो पाषु॥ कोउ नयनन सों नयन जोरिकै कहति नमोतन चाहौ। अबहीं तुम अकुलात कहाहौ जानहुगे मनलाहौ॥ घेरि रही सरघाकी नाहीं करति सबै मनलह। इक बूझति इक चिबुक उठावति वशपाए हरिनाह॥ पीतांबर मुरली लई तबहीं युवती स्वांग बनाइ। देखत सखा दूरि भए ठाढे निरखत श्यामल जाइ॥ नखछत छाप बनाय पठाए जानि मानि गुणयेहु। सूरश्याम हमको जिनि बिसरौ चिह्न इहै तुम लेहु॥२७॥ गुंडमलार ॥ खेलत रंग रह्यो एक ओर ब्रजसुंदरि एक ओर मोहन। बरन बरन ग्वालबने महर नंद गोप जने एक गावत एक नृत्यत एक रहत गोहन॥ बजावत मृदंग ताल अरस परस करै विहार सोभाको बरनी पार एक एक दै सोहन कनक लकुट करन लिए धाए सब हरषि हिए एक ब्रजललना सूरज प्रभु मन मन मिलि भोंहन॥२८॥ सारंगा ॥ हो हो हो हो होरी करत फिरत ब्रजखोरी। मोहन हलधर जोरी सुवननंद कोरी बालसखा सँग ढोरी लिए अबीर कर झोरी॥ मारि भजत जोरी जोरी दावलेत दौरी। एक गावति है धमारि एक एकन देति गारि गोरी। दई सबन लाज डारि बाल पुरुष तोरी॥ सोंधे अरगजाकीच मची जहां तहां गलिन नोरी। बीच एक एक ऊंच नीच करत रंगझोरी॥ एक उघटत एक नृत्यत एक तान ले तोरी। उपजाइ एक दै करताल हरषि गावति है गौरी॥ सूरदास प्रभुको सुख