पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५५

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(२) सूरसागर-सारावली। कीये अपन अपन अधिकार ॥२०॥ तेज, आग्नि, यम, मरुत, वरुण औ सूर्य चन्द्र यह नाम ।। मृत्यु, कुवेर, यक्षपति कहियत जहँ शंकर को धाम ॥२१॥ सत्यलोक, जनलोक तपलोक और महर निजलोक । जहँ राजत ध्रुवराज महानिधि निशि दिन रहत अशोक ॥ २२ ॥ जननी आज्ञा पायचले बन पांच वर्ष सुकुमार । ताको आप कृपा हरि कीन्हीं धरि आये अवतार ॥ २३॥ पाछे पृथुको रूप हरि लीन्हों नानारस दुहि काढ़े। तापर रचना रची विधाता बहु विधि यत्न. नवादै ॥२४॥रचि नवखण्ड द्वीपसातों मिलि कीन्हों जोरि समाज । वन उपवन पर्वत बहुफूले सब वसन्तको साज ॥२५॥ दानव देव लगे आपसमें कीन्हों युद्ध प्रकार विविधशस्त्र छूटतः पिचकारी चलत रुधिर की धार ॥२६॥ दीन्हे मारि असुर हरिने तब देवन दीन्हीं राजा।' एकन को फगुवा इन्द्रासन इक पतालको साज ॥ २७॥ विद्याधर, गन्धर्व, अप्सरा गानकरत सब ठाढ़े। चारण, सिद्ध पढ़त विरदावलि लै फगुवा सुखबाढ़े ॥२८॥चन्द्रलोक दीन्हों शशिको तब फगुवामें हरि आप। सब नक्षत्रको राजा दीन्हों शशिमंडल में छाप ॥२९॥ मंगल, बुद्ध. शुक्र अरु शनि अरु राहु केतु यह जानारवि अरु शशि सबहिनको फगुवा दीन्हों चतुर सुजान। ॥३०॥ अतल वितल अरु सुतल तलातल और महातल जान । पाताल और रसातल मिलि सातों भुवन प्रमान ॥३१॥ संकर्षणको धाम परमरुचि तहँ राजत निज वीर। शेषनाग ताके तर कूरम वसत महाधन धीर ॥३२॥ इलावत और किम्पुरुषा कुरु और हरिवर्ष केतुमाल हिरन. मैरमनक भद्रासन भरतखण्ड सुखपाल॥३३॥ सातों द्वीप कहे शुक मुनिने सोइ कहत अब सूरराजंबु पक्ष, क्रौंच, शाक, शाल्मलि, कुश, पुष्कर भरपूर ॥३४॥ अपने २ स्थाननपर तब फगुवा दियो चुकायाजव जब हरि मायाते दानव प्रकट भयेहै. आय||३५॥तब तब धार अवतार कृष्णने कीन्हों असुर सँहार । सो चौवीस रूप निज कहियत वर्णन करत विचार॥३६॥प्रथम किये स्वायंभुवमनु. नृप अज आज्ञा यह दीन्हीं । भूपर जाय राज तुम करिहौ सृष्टि विस्तार यह कीन्हीं ॥३७॥ स्वायंभुवमनु अरु शतरूपा तुरत भूमि पर आये । जलमें मगन भये भुवदेखे फिर अजपै चलिआये ॥ ३८॥ जासों आय कही सवही विधि भुवद्रव देखियत नाहीं। तब अति ध्यान कियो श्रीपतिको केशव भये सहाहीं ॥३९॥ आईछींक नाकते प्रकटे शूकर अति लघु रूप। देखत गजसे होयगये हैं कीन्हों वृहत स्वरूपः ॥ ४० ॥ जय जय करत सकल सुर नर मुनि जल में कियो प्रवेश । जाय पताल बाट गहिलीन्हीं धरणी स्मानरेश ॥४१॥ ते भुक्कमल कुसुमकी नाई चले मनहुँ गजराज । कछुडर नाहिंन जियमें डरपति अति आनन्द समाज ॥ ४२ ॥ योगी || साधु, सनकादिक चारों गये हरिके निज लोक । कीन्हें क्रोधमने जब कीन्हें दियो शाप आति शोक ॥ ४३ ॥ जय अरु विजयः असुर योनिनको भये तीन अवतार । तिनमें प्रथम लियो । कश्यप गृह दितिकी कोखि मँझार ॥ ४४ प्रथम भयो हिरण्याक्ष महावल जिन जीते लोकपाल । नारद सीखगयो शूकरपै देखो रूप. विकराल ॥४६॥ सहसवर्षलौं जलमें जूझे कियो दनुज संहार। पाछे आय भूमिको थापी कियो. यज्ञ विस्तार ॥ ४६॥ स्वायम्भुव शतरूपा तनया कहियत तीन प्रमान । आकृती देवहूती. और परसूती चतुरसुजानः॥ १७॥ परसूती दई दक्षप्रजापति तिनकी सती सयान। सो दीन्हीं महादेव देवको अति आनंद सुज्ञान ॥ १८॥ तन्यो देह अभि मान पायके वहरि दक्षगृहजाई। पातिव्रतहि धर्म जब जान्यो वहुरो रुद्र विहाई-॥४९॥आकूती दुई रुचि प्रजापति भये यज्ञः अवतार । इन्द्रासन बैठे. सुख विलसत दूर किये भुवभार ॥५०॥