पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५५७

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संरसागर। हैं दोउ पीर । सूर नंद विनु पुत्र कहाए ऐसे जाए हीर॥७३॥ बिलावल ||अंतर्यामी जानिकै सब ग्वाल : बोलाए । परखि लिए पाछेनको तेऊ सब आए। सखा बंद लै तहां गए बूझन तेहि लागे । नृपति पास हम जाहिंगे अंबर कछु मांगे। हँसे श्याम मुख हेरिकै धोवत गरवानो। मारत मारत सातके दोउ हाथ पिरानो ॥ अवहीं देहैं आइकै कछु हम लै रैहैं । पहिरावन जो पाइहँ सो तुमहूं देहैं। की पहिलेही लेहुगे हम इहै विचारे । देहु बहुत गुण मानिहैं आधीन तुम्हारे ॥ मार मार कहि गारि दैधृग गाइ चरैया। कंसपास? आइए कामरी वोठेया॥ बहुरि अरसते आनिकै तब अंबर लीजो। अरस नामहै महलको जहां राजा बैठे। गारी दैदै सब उठे भुज निजकर ऐठे॥ पहिरावनको जुरि चले पैहो मल्लनसों। सूर अजाके भोगए सुनि लेहु नमोसों॥७४।। बिलावल ।हम माँगतहैं सहज सों तुम अति रिसकीन्होंकहा करें तो जाहिंगे जो तुम हमाहिं न दीन्हों।रिस करियतक्यों सहन हो भुज देखत ऐसे । करि आए नट स्वांगसे मोको तुम वैसे ॥ हमाहि नृपति सों नातहै ताते हम मागे । बसन देहु हमको सबै कहैं नृपके आगे ॥ नृप आगे लौं जाहुगे बीचहि मरि जैहो । नैक जीवनकी आशहै ताहू विनवैहौ ।। नृप काहेको मारिहै तुमहीं अब मारत । गहर करत इमको कहा मुख कहा निहारत ॥ सूर दुहुँनमैं मारिहौं अति करत अचगरी । वसत तहां युधि तैसिये वह गोकुल नगरी ७५ रागविलावल ॥ श्याम गह्यो भुज सहजही क्यों मारत हमकोकस नृपतिकी सौहहै पुनि पुनि कही तुमको ॥ पहुँचा करसों गहिरहे जिय संकट मेल्यो। डारि दियो ताहि शिलापर बालक ज्यों खेल्यो ॥ तुरत गयो उड़ेि स्वर्गको ऐसे गोपाला। जन्म मरनते रहि गयो वह कियो निहालरिजक भजे सब देखिकै नृप जाइ पुकारयो।सूर छोहरन नंदके नृपसेलिहि मारयो७६ गार। यह सुनिकै नृप त्रास भरयो । सबन सुनाइ कही यहवाणी इह नँदनंद कह्यो। मारो श्याम राम दोउ भाई गोकुल देउ बहाइ । आगे देके रजक मरायो स्वहि देहु पठाइ ॥ दिन दिन इनकी करौं बड़ाई अहिर गए इतराइ । तौ मैं जो वाही सों कहिकै उनकी खाल कढाई। सूर कंस इह करत प्रतिज्ञा त्रिभुवननाथ कहाए ॥७७ ॥ विलावल ॥ रजक मार हरि प्रथमही नृप वसन लुटाए । रंग रंग बहु. भाँतिके गोपन पहिराए ॥ आए नगर लगारको सब वने बनाए।।इकटक रही निहारिक तरुणिन मनभाए ॥ जैसी जाके कल्पना तैसे हि दोउ आए । सूर नगर नर नारिके मन चित्त चोराए।।७८॥एइ वसुदेवके दोउ ढोटागौर श्याम नट नील पीत पट.कल हंसनके. जोटा ॥ कुंडल एक. काम श्रुति जाके श्रीरोहिणिको अंश । उर वनमाल देवकीको सुत.जाहि डरतहै कंस ॥ लै राखे ब्रज सखा नंद गृह बालक भेष दुराइ। सम बल बैस विराट मैनसे प्रगट भएहैं आइ ॥ केशी अब पूतनां निपाती लीला गुणनि अगाध । सूरश्याम खलहरन करन सुख अभयकरन सुरसाध॥७९॥ रामकली॥ येइ कहियत वसुदेव कुमार। कंसत्रास मनमात पठाए कीन्हे नंददुलार ॥ प्रथम पूतना इनहि निपात काग मरत उठि भाज्यो। शकटा तृणा इनहिं संहारयो काली इनहि निवाज्यो। अघा बका संहारन एई असुर संहारन आए। सूरज प्रभु हित हेतु भावकै यशुमति बाल कहाए८०॥ रागनट हैं रोहिणीसुत रामागौर अंग सुरंग लोचन प्रलय कैसे ताम ॥ एक कुंडल श्रवणधारी दोत दरशीग्राम । नील अंबर अंगधारी श्याम पूरणकाम ॥ महा जे खल तिनहुँ ते अति तरतहै एक नामः । ब्रह्म पूरण सकल स्वामी रहे ब्रजनि शिधाम ॥ ताल बन इन बच्छ मारयो ब्रह्म पूरणकाम | सूर प्रभु आकरषि ताते संकर्षणहै नाम८१ ॥ रामकली ॥ एहैं देवकीसुतःश्यामः। मुकुट शिर शुभ-श्रवण कुंडल करत पूरणकाम।।-महाजे खल