पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५५८

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दशमस्कन्ध-१० (४६५) 'तिनहुँते अति तरतहैं इक नामा।ब्रह्मपूरण सकल स्वामी रहे बन वसिधामानंद पितु माता यशोदा बाँधे ऊखल दाम । लकुट लैलै त्रास कीन्हो करयो इन परताम।ताहि मान्यो हेतु करि इन हँसति व्रजकी वाम । सूर धनि नँद धन्य यशुमति धन्य गोकुल ग्राम ॥८२॥ अध्याय ॥ ४२ ॥ हरि धनुप भूमि आगमन कूवरी उद्धार॥ रागमारू ॥ धनुपशाला चले नंदलाला ॥ सखा लिए संग प्रभु रंग नाना करत देव नर कोउ न लखहि कत व्याला । नृपति के रजकसों भेंट मगमें भई कह्यो दे वसन हम पहर जाहीं । वसन ए नृपतिके जासुके प्रजा तुम ए वचन कहत मन डरत नाही॥ एकही मुष्टिका प्राण ताके गए लए सब वसन कछु सखन दीन्हें । आइ दरजी गयो बोल ताको लयो सुभग अंग सजत उन विनय कीन्हें । यों सुदामा कयौ गेह मम अति निकट कृपाकरितहां हरिचरणधारी ॥ धोइ पद कमल सों अहार आगे धरी भक्ततासु सव काज सारी । लिए चंदन बहुरि आनि कुविना मिली श्याम अंग लेप कीयो बनाई ॥रीझि तेहि रूप दियो अंग सूधो कियो वचन शुभ मानि निज गृह पठाई । पुनि गए तहाँ जहां धनुप बोले सुभट हौस मन जिनि करौ वन विहारी ॥ सूर प्रभु छुअत धनु टूटि धरणी परयो शोर मुनि कंस भयो भ्रमत भारी॥८३ ॥ दूसरी लीला धनुषयज्ञकी विस्तार चदत | गुंडमलार ॥ श्याम वलराम गए धनुपशाला। लियो रथते उत रिरजक मारयो जहां कंदराते निकसि सिंह वाला ॥ नंद उपनंद सँग सखा एक थल राखि दोऊ बने आवैहि वीर जोटा । असुर सैना खड़े देखिकै वे डरे धनुष चहुँ पास रिपु घुटा घोटा॥घरिली न्हें श्याम वलरामको तहां वोलि सब उठे हरि धनुप तोरो । सूर तुमको सुनै भुजनि बलचंड अति हँसत हरि करयो यह वैर जोरौ॥८॥ विहागरो ॥ हमको नृप यहि हेतु बोलाए ॥ कहां धनुप कह हम अति वालक कहि आचर्य सुनाए । ठाढे शूरवीर अवलोकत तिनसों कहौ न तोरै । हमसों कहौ खेल कछु खेलें यह कहि कहि मुख मो।कंस एक तहां असुर पठायो इहै कहत वह आयोविनै धनुप तोरे अब तुमको पाछे निकट बोलायो।बालक देखि गहन भुज लाग्यो ताहि तुरतही मारयो । तोरिकै दंड मारि सब योधा तब बल भुजा निहारयोजाके अस्त्र तिनहि तेहि मारयो चले सामुही खोरी । सूर सुकुवरी चंदन लीन्हें मिली श्यामको दौरी॥८६॥धनाश्री॥ प्रभु तुमको चंदन मैं ल्याई । गह्यो श्याम कर कर अपनेसों लिए सदनको आई॥ धूप दीप नैवेद साजिकै मंगल करे विचारी। चरण पखारि लियो चरणोदक धनि धनि कहि दैत्यारी । मेरो जनम कल्पना ऐसी चंदन परसौं अंग । सूर श्याम जनके सुखदायक बधे भाव रजु रंग॥८६॥गुंडमलारी। कुवरी नारि सुंदरी कीन्ही। भावमें वास विन भाव नहिं पाइए जानि हृदय हेतु मानि लीन्ही|ग्रीव कर परास पग पीठि तापर दियो उर्वसी रूप पटतरहि दीन्ही । चित्त वाके इहै श्याम पति मिलें मोहिं तुरत सोई भई नहिं जात चीन्ही नाहि अपनी करी चले आगे हरी गए जहां कुवलिया मल्ल द्वारयो । वीच माली मिल्यो दौरि चरणन परयौ पुहुपमाला श्याम कंठ धारयो । कुशल प्रसन्ननि कहे तुरत मन का मलहि भक्तवत्सल नाम भक्त गावें । ताहि सुखदै चले पौरिही है खरे सूर गजपालसों कहि सुना | बैं॥॥ अध्याय॥ ४३ ॥ कुवलियाहस्ती वा मुष्टिक चाणूर वधाकान्हरो॥ सुनहु महावत बात हमारी द्वारखड़े रहेहैं कवके जिनि रे गर्व करै जिय भारी न्यारो करि गयंद तू अजहूं जान देहिका अंकुशमारी। सूरदास प्रभु दुष्टनिकंदन धरणी भार उतारनकारी८८॥ गुंडमलारा वार वार संकर्पण भापत वारन वनि वारन करि न्यारो । वारन छाँडि देत किन हमको तू जानत मतंग मतवारोवाहर खडे वात सुन मेरी त्रिभुवनपति जिनि जाने वारो । वादिहि मरिजैहै पलभीतर कहे देत नहिं दोप हमारो ।