पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५६

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· सूरसागर-सारावली। देवहुती कर्दमको दीन्हों तिन कीन्हों तपभारी । विन्दु सरोवर आये माधव किये गरुड अस वारी ॥५१॥ दियो वरदान सृष्टि करिवेको स्तुतिकरी प्रमान । मेरो अंश अवतार होयगो कहि भये अन्तर्धान ॥५२॥ पाछे ऋपि निज तप मनलायो कीन्हों प्रकट विमान । तामें वैठि सकल जग देख्यो कन्यानो सुखदान ॥५३॥ पाछे कपिलरूप हरि प्रकटे दर्शनकरि मुनिराय । कीन्हों त्याग गये वनको तव ब्रह्म परमपदपाय ॥५४॥ पाछे विविधज्ञान जननीको दीन्हों कपिल हदाय । सांख्ययोग अरु ज्ञानभक्ति दृढ़ वरणी विविध वनाइ ।। ५५ ॥ जलको रूप तुरत लै गइ वह हरिके रूप समाय । चले मगन ब्रह्मध्यान कर गंगासागर न्हाय ॥५६॥अजहुँलौं राजत नीरधि तट करत सांख्य विस्तार । सांख्यायनसे बहुत महामुनि सेवत चरण सुचार ।।१७॥ अत्रै पुत्रभये ब्रह्माके तिन कीन्हों तप जाय । आये तीन देवताके ढिग ब्रह्मा शिव हरिराय ॥५८ ॥ तव उन माग्यो सुत तुमहींसे तीनो प्रकटे आय । अज, शशि,अंश, रुद्र, दुर्वासा, दत्तात्रेय, हरिराय॥१९॥ अनुसूयाके गर्भ प्रकट कियो योग आराधि । यम अरु नियम प्रमान प्रत्याहार धारण ध्यान समाधि ॥ ६० ॥ आसन कसर सिद्ध योगकर प्रकटकला जगदीश । दीन्हो भोग सहस नृपको बहु करुणानिधि जगदीश ।। ६१ ।। कीन्हे गुरु चौवीस सीखले यदुको दीन्हों ज्ञान । पातंजलिसे मुनिपद सेवत करत सदा अज ध्यान ॥ ६२ ॥ जब सृष्टिनपर किरपा कीन्हीं ज्ञानकला विस्तारासनक सनंदन और सनातन चारों सनतकुमार॥६॥ उनसे कह्यो सृष्टि नानाविधि रचनाकरो बनायाउन नहिं मान्यो तब चतुरानन खीझे क्रोध उपाय। ॥ ६४ ॥ शंकर प्रकटभये भृकुटीते करों सृष्टि निर्मान । भूत प्रेत वेताल रचो बहु दौरे विधिको खान ॥ ६ ॥ पूरण करो कह्यो चतुरानन सृष्टि महादुख दैन । तव शंकर तपस्या को निकसे चितै कमलदल नन।६६मूरति त्रियाजु भई धर्मको तिनके हरि अवतारानारायण जव भये प्रकट वपु तिन मेट्यो भुवभार ॥६७॥ सहस कवच इक असुर सँहारेउ बहुरि कियो तप भारी । शोच परेउ सुरपति को तब उन पठइ अप्सरानारी ।। ६८॥ बहुत भांति उन कियो परमछल तपमें उनके कान । कछु नहिं चली ब्रह्मनारायण सुखसमाज तिय साज ॥ ६९॥ इक उर्वशी हृदय उपजाई दई शक्रकोताय । ताको देखि देखि जीवत, अजहुँ इन्द्र सुख पाय ॥ ७० ॥ स्वायंभुव के द्वितिय पुत्र उत्तानपाद मतिधीर । तिनके ध्रुव वालक जो जाये औ उत्तम गंभीर ॥ ७१ ॥ नृपके पास गये गोदीमें बैठनको सुकुमार । तव लघु मात कह्यो तब बैठो जब मेरे अवतार||७२॥ मुनि कटु वचन गयो माता पै तब उन ज्ञान दृढ़ायो । हरिकी भक्ति करो मुख नीके जो चाहो सुख पायो॥७३॥पांचवर्षके निकसि चले तव मधुवन पहुँचे आय। विच नारदमुनि तत्त्व बतायो ज मंत्र चितलाय ॥७॥ कदिन पत्र भक्ष करिवीते कछु दिन लीन्हों पानी । कछु दिन पवन कियो अनुप्राशन रोक्यो श्वास यह जानी ।। ७५ ॥ दारुण तप जब कियो राजसुत तब कांप्यो सुरलोक । त्राहि २ हरिसों सव भाष्यो दूर करो सव शोक ॥७६॥तव हरि कह्यो कोऊ जिन डरपो अवहिं तुरत में जैहौं । बालक ध्रुव वन करत गहन तप ताहि तुरत फलदैहौं ॥ ७७ ॥ इतनी कहत गरुड पर चर्दिक तुरतहि मधुवन आये। कंबु कपोल परसि बालकके वाणी प्रकट कराये ॥ ७८॥ स्तुति करी बहुत ध्रुव सब विधि सुनि प्रसन्न भये आप । दीये राज भूमि मण्डलको सव विधि थिरकरि थाप ॥ ७९ ॥ हरि वैकुण्ठ सिधारे पुनि ध्रुव आये अपने धाम । कीन्हों राज तीस पट वर्पन कीन्हें भक्तन काम ॥ ८॥ यक्ष प्रबल वाढ़े भुव मंडल तिन मारयो निज भ्रात।।