पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५६७

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(४७४४ सूरसागर। जापर होइ । ताहि कछु यह बहुत नाही हृदय देखो जोइकहा संशय करत याको कितिकहै यह । बात । असुर सैन्य सँहारि डारे भक्तजनसों नात. ॥ हरन करन समरथ येईहैं कहौं वारंवार । सूर.) हरिकी कृपाते खल तरिगए संसार||३८किंसवधलीला दूसरी ॥ विलावलाकृष्ण कृपा सबहीते न्यारीको टि करै तप नहीं मुरारी ॥भाव भजन कुविजा भई प्यारी। दनुज भाव विनु मारे डारी॥ प्रथम हि रजक मारि पुरआए । धनुषयज्ञ कहँ कंस बोलाए।तोरिक दंड वीर सब मारे । हित कुविजा के धाम सिधारे । रूपराशि निधि ताको दीन्हों। आवन कह्यो गमन तब कीन्हो ॥ तहां कुवलिया राख्यो द्वारे। जात श्याम बलराम विचारे ॥ माली मिल्यो माल पुहुप लैक । लीन्हों कंठ इया म अति रुचिक।।मनकामना तुरत फल पायो।कोटि कोटि मुख स्तुति गायो॥आतुर गयो कुवलिया पासा। सूरज चंद्र धराणे परगासा ।। बालक देखि महावत हरष्यो। कान्ह पूंछ धरि तुछकार पर ष्यो॥ कौतुक करि मतंग तब मारयो । गहि पटक्यो तनु नेक न दारयो । दुहुँन एक इक दंत उपारयो। जहां मल्ल तहको पग धारयो । देखत रूप त्रास जिय आन्यो। मन मन काल आप नो जान्यो । तब कोमल दरशे यदुराई । तुरत गए आगे सब धाई॥मारे.मल्ल एक नहि उवरयो।। पटकत धरणि नृप श्रवणन घुमरयो । क्रोध सहित तब कंस प्रचारयो।ताहि प्रगटि तुरतहि तेहि मारचो ॥ अमर नाग नर कहि कहि भाखासदा आपने जनको राखै ॥ राजा उग्रसेन कहवाए।मात पिता वंदिते छोराए ।। इतने काज किए हरि नीके। कुविना प्रेम बँधे हरि हीके ॥ आतुर हरि ताके गृह आए। रानिन बोधि महल नहिं भाए । चितवत मंदिर भए अवासा । महल महलं लाग्यो मणि पासा ॥ जवाहिँ सुने कुविजा हरि आए । पाटम्बर पांवडे डसाए ॥ कुबिना ते भई राजकुमारी । रूप कहा कहाँ कृष्ण पियारी ॥ टेढी जे हरि सूधी कीन्हीं। लक्षण अंग अंग प्रति दीन्हीं ॥ राजा हरि कुविजा पटरानी। मथुरा घर घर सबही जानी ॥ गोप सखा यह सुनत न माने । त्रासहि में सब रहत सकानेमारयो कंस सुनत सबसके । वलमोहन आए नहिं दके ॥ बजते चले भए षट यामा । व्याकुल महरि होति लैनामा|प्रजा जानि मन मन डरपाही कैसे वल मोहन. ब्रज जाहीं ॥ यहि अंतर हरि आए तहँई । नंद गोप सब राखे जहँई ॥ नृप उद्धव अरहि लीन्हों। तहां गवन प्रभु सूरज कीन्हों॥३९॥ विलावल ॥ यदुवंशी कुल उदित कियोकिस मारि पुहुमी उद्धारी सुरनं कियो निर्भय हियो।घर घर नगर अनंद बधाई मन वंछित फल सबनि लहो । निगड तोरि मिलि मात पिता को हरष अनल करि दुखहि दहो। उग्रसेन मथुरा कार राजा ऐसे प्रभु रक्षक जनको । कहुँ जनमें कहुँ कियो पान पय राखि लेत भक्तन पनको ॥ आपुन गए नंद जहँ वासा. हलधर अग्रज संग लिए । सूर मिले नंद हरषवंत है ब्रज चलि है अति हरष हिए ॥४०॥ अरस परस सब ग्वाल कहैं । जब मारयो हरि रजक आवतही मन जान्यो हम नहिं निवहैं ।। वैसो धनुष तोरि सब योधा तिन मारत नहिं विलम करयो। मल्ल मतंग तिहूंपुर गामी | छिनकहि में सो धरणि परयो । वैसे मल्लनि दाँव विसारे मारि कैस निरवंश कियो। सुनहु सूर येहैं अवतारी इनते प्रभु नहिं और वियो॥४१॥ नंद गोप सब सखा निहारत यशुमति सुतको भावनहीं । उग्रसेन वसुदेव उपंगसुत सुफलकसुत वैसे संगही । जवहीं मन न्यारो हार कीन्हों गोपन मन इह व्यापि गई। बोलि उठे यहि अंतर मधुरे निठुर ज्योति जो ब्रह्ममई ॥ अति प्रतिपाल कियो तुम हमरो सुनत नंद जिय झझकि रहे । सूरदास । प्रभुकी लीला यह वसुदेवसों की मोसों वचन कहे ॥ ४२ ॥ विलावल ॥ काहि कहत प्रतिपाल । % 3D -