पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५६८

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दशमस्कन्ध-१० (१७) कियो । मोसों कहत होहि जिनि ऐसी नैन ढरत नहिं भरत हियो ॥ संकितनंद विरसवानी सुनि विलम करत कहा क्यों न चलें। कंसमारि रजधानी दोन्ही बजते बहुरौ आनि मिलें ॥ मनहीं मन ऐसी उपजावत वै उत ब्रह्म ब्रह्म दरसी।सूर पिताको मात कौनके रहत सवन में वै परसी॥४३ तब वोले हरिनंदसों मधुरे करि वानी । गर्गवचन तुमसों कही नहिं निहचै जानी ॥ मैं आयो संसारमें अवभार उतारन । तिनको तुम धनि धन्यहो कीन्हों प्रतिपारन ॥ मात पिता मेरे नहीं तुमते अरु कोऊ । एक वेर व्रजलोगको मिलिहौ सुनो सोऊ ॥ मिलन हिलन दिनचारिको तुम तो सब जानौं। मोको तुम अति सुखदियो सो कहा बखानौं । मथुरा नर नारी सुनै व्याकुल ब्रजवासी।सूर मधुपुरी आइकै ये भए अविनासी ॥४४॥ टोडी ॥ निठुर वचन जिनि कही कन्हाई। अतिही दुसह सह्यो नहिंजाई ।। तुम हसिकै वोलत ए वानी । मेरे नयन भरत है पानी ॥ अब ए बोल कबहुँ जिनि बोलौ । तुरत चलौ ब्रज आँगन डोलौ ॥ पंथ निहारत यशुमति छैहै । तुमविन मोको देखि सुखैहै । तब हलधर नंदहि समुझावत । कछु करि काज तुरत ब्रज आवत ॥ जननि अकेली व्याकुल है है । तुमहिं गए कछु धीरज लैहै ॥ बहुत कियो प्रतिपाल हमारो । जाइ कहां उरध्यान तुम्हारो ॥ व्याकुल होन जननि जिनि पावै । बार बार कहि कहि समुझावै ॥ व्याकुल नंद सुनत ए वानी । डसि मानौं नागिनी पुरानी ॥ व्याकुल सखा गोप भए व्याकुल । अंतकदशा भयो भय आकुल||सूरश्याम मुख निरखत ठाढेमानों चितेरे लिखि सब काढे ॥४६॥ राग सोरठ ॥ गोपालराइ हौं न चरन तजि जैहौं । तुमहिं छांडि मधुवन मेरे मोहन कहा जाइ ब्रज लैहौं । कैहौं कहा जाइ यशुमतिसो जव सन्मुख उठि ऐहै। प्रातसमय दधि मथत छाँडिकै काहि कलेऊ दे ॥ बारह वर्ष दयोहम ठाडो यह प्रताप विनुजाने । अब तुम प्रगट भए वसुदेव सुत गर्गवचन परमाने॥ कत हम लागि महारिपु मारे कत आपदा विनासी । डारि नदियो कमल करते गिरि दवि मरते ब्रजवासी ॥ वासर संग सखा सव लीन्हें टेरिन धेनु चरैहौ । क्यों रहि हैं मेरे प्राण दरश विनु जव संध्या नाहं ऐहो । अब तुम राज्य करी कोटिक युग मातपिता सुख देहौ। कबहुँक तात तात मेरे मोहन या मुख मोसों कही । ऊरध श्वास चरण गति थाक्यो नैनननीर न रहाइ । सूरनंद विछुरेकी वेदन मोपै कहिय न जाइ ॥४६॥ बिलावल ॥ वेगिव्रजको फिरिये नंदराइहिमाहं तुमहिं सुत तातको नातो और पो है आइ ॥ बहुत कियो प्रतिपाल हमारो सो नहिं जीते जाइजहां रहै तह तहां तुम्हारे डारौ जिनि विसराहामाया मोह मिलन अरु विछुरन ऐसेही जगजाहासूरश्यामके निठुर वचन सुनि रहे नयन जल छाइ ॥४७॥ नट ॥ यह सुनि भए व्याकुल नंद । निठुर वाणी कही जब हरि परि गए दुखफंद ॥ निरखि मुख मुख रहे चकृत सखा अरु सब गोप । चरित ए अक्रूर कीन्हें करत मन मन कोप ॥धाइ चरणन परे हरिके चलहु ब्रजको श्याम । कंस असुर समेत मारे सुर नके कार काम ॥ मोचि वंदन राजदीनों हर्प भए वसुदेव । सूर यशुमति विनु तुम्हारे कौन जाने देव ॥ १८॥ राग सोरठ ।। नंद विदा है घोप सिधारौ । विछुरन मिलन रच्यो विधि ऐसो यह संकोच निवारौ ॥ कहियो जाइ यशोदा आगे नैन नीर जिनि ढारौ । सेवा करी जानि सुत अपने कियो प्रतिपाल हमारों । हमैं तुम्हे कछु अंतर नाहीं तुम जिय ज्ञान विचारौ । सूरदास प्रभु यह विन तीहै उर जिनि प्रति विसारौ ॥ १९॥ राग सोरठ | मेरे मोहन तुमहिं विना नहिं जैहौं । महरि दौरि आगे जब ऐहै कहा ताहि मैं कैहौं । माखन मथि राख्यो लैहै तुम हेतु चलौ मेरे वारे।। निठुर भए मधुपुरी आइकै काहे असुरन मारे ॥ सुख पायो वसुदेव देवकी अरु सुख सुरन