पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५६९

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(४७६ ) . . . सूरसागर। दियो । यहै कहत नँदगोप सखा सब विदरन चाहत हियो ॥ तर माया- जडता उपजाई एसो प्रसु यदुराई । सूर नंद परवाधेि पठावत निठुर ठगोरी लाई॥५०॥ नट ॥ नंदहि कहत हरि व्रज जाहु । कितिक मथुरा व्रजहि अंतर जिय कहा पछिताहु ॥ कहा व्याकुल होत अतिहीं दूरिहं कहुँ जात । निठुर उरमें ज्ञान वरत्यो मानि लीन्हों वात ॥ नंद भए कर जोरि ठाढे तुम कहे ब्रज जाउ । सूर मुख यह कहत वाणी चित नहीं कहुँ ठाउ ॥५१॥विलावल।। तुम मेरी प्रभुता वहत करी। परम गँवार ग्वाल पशुपालक नीच दशाले उच्चधरी ॥ रोग दोष संताप जनमके प्रगट तही तुम सबै हरी । अष्ट महासिधि और नवो निधि कर जोरे मेरे द्वार खरी ॥ तीनिलोक अरु. भुवन चतुर्दश वेद पुराणं नसही परी । सूरदास प्रभु अपने जनको देत परमसुख घरी घरी॥ ॥६२॥ रामकली । उठे कहि माधौ इतनी बात । जते मान सेवा तुम कीन्हीं बदलो दयो नजातपुत्र हेतु प्रतिपाल कियो तुम जैसे जननी तात । गोकुल वसत खवावत खेलत दिवस न जान्यो जात ।। होहु विदा घरजाहु गुसाई माने रहियो नात । ठाडो थक्यो उतर नहिं आवै लोचन जल नसमात।। भए बलहीन खीन तनुकंपित ज्यों वयारि वशपाताधकधकात मन बहुत सूर उठि चले नंद पछिता त ॥५३॥रागनटा फिरिकरि नंदन उत्तर दीन्हों।रोम रोम भरिगयो वचन सुनि मनहुँ चित्र लिखि कीन्हों। यहतो परंपरा चलि आई सुख दुख लाभ अरु हानि।हम पर बवा मया करिए रहियो सुत अपनो जिय जानि ॥ को जलपै काके पल लागे निरखि वदन शिरनायो । दुखसमूह हृदय परि पूरण चलत कंठ भरि आयो । अध अध पद भुव भई कोट गिरि जौलगि गोकुल पैठो । सूरदा. स अस कठिन कुलिशहुते अजहुँ रहत तनु बैठो ॥५४॥रागधनाश्रीचले नंद ब्रजको समुहाइगोप सखा हरि बोधि पठाए सबै चले अकुलाइ ॥ काहू सुधि नरही तवकी कछु लटपटात परे पाइ। गोकुल जात फिरत पुनि मधुवन मन पुनि उतहि चलाइ॥विरह सिंधुमें परे चेत विन ऐसहि चले वहाइ।सुरश्याम बलराम छाँडिक बज आये नियराइ ९६॥भैरवावार वार मग जोवति माताव्याकुल बिन मोहन बल भ्राता । आवत देखि गोप नंद साथा। विवि वालक विनु भई अनाथा ॥धाई धेनु वच्छा ज्यों ऐसे । माखन विना रहैं धौं कैसे ॥ब्रजनारी हरषित सब धाई । महरि जहां तहँ आतुर आई । हरषित मात रोहिणी धाई । उर भरि हलधर लेहुँ कन्हाई ॥ देखे नंद गोप सब देखे । बल मोहनको तहांन पेखे|आतुर मिलन काज वजनारी।सूर मधुपुरी रहे मुरारी५६॥अथ नंद ब्रजआगमन यशोदा वचन नंद मति ॥ सोरठ ॥ नंदहि आवत देखि यशोदा आगे लैनगई । अति आतुर गति कान्ह लैनको मनआनंद भई ॥ कहां नवनीत चोर छांडे मेरे देखत मारिनई । तेहि खन घोष सरोवर मानों पुरइनि हेम मई ॥ गर्ग कथा तब कहि जु सुनाई सो अब प्रगट भई । सूर मोहिं फिरि फिरि आवत गहि झगरत नेतरई ॥१७॥कल्याण।। श्याम राम मथुरा तजि नंद ब्रजहि आए।बार बार महरि कहति जनम धृग कहाए । कहूं कहति सुनी नहीं दशरथकी करनी। यह सुनि नंद व्याकुल है परे मुरछि धरनी ॥ टेरि टेरि पुहुमी परति व्याकुल व्रजनारी । सूरज प्रभु कौन दोष हमको जु विसारी॥५८||सारंग।। उलटि पग कैसे दीन्हों नंद । छाँडे कहां उभय सुत मोहन धृगजीवन मति मंद ॥कै तुम धन यौवन मदमाते के तुम छूटे बंद । सुफलक सुत वैरी भयो हमको लै गयो. आनंदकंदाराम कृष्ण विन कैसे जीजै कठिन प्रीतिक फंद । सूरदास प्रभु भई अभागिनि तुमविनु : गोकुलचंद६९॥मलार।दोउ ढोटा गोकुलनायक मेरे काहे नंद छांडि तुम आए प्राणजीवन सब करे। तिनके जात बहुत दुखपायो सौर परी यहि खेरे। गोसुत गाइ फिरतहैं दहदिश वने चरित्र म थोरे॥