पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५७

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(४) सूरसागर-सारावली। तिनके काज अंश हरि प्रगटे धूव जगत विख्यात ॥ ८१ ॥ बहुत वपलौं राज कियो भुव फिर आये निजलोक । सबके ऊपर सदा विराजत धूव सदा निःशोक ॥ ८२ ॥ सनकादिक: पछियो चतुरानन ब्रह्मजीवको बीच । प्रकट हंसवपु धरयो जगत पुर जोप नीर सुमीच ॥ ॥ ८३ ॥ यह भुवमंडल को रसकाढ्यो भांति २ निज हाथ । धरि पृथुरूप कियों जगआनंद अखिललोलके नाथ ॥ ८४ ॥ प्रियव्रत.वंश धरे हरि निजवपु ऋपभदेव यह नाम । कीन्हें काजसकल भक्तनको अंग २ अभिराम ॥ ८५ ॥ कीन्हों गर्व महा मघवाने वर्षा। बरषो नाहि । तब हरि आप मेवढे वरषे करी परम सुख छाहि ॥८६॥ ज्ञान उपदेश कियो पुत्रन: को ब्रह्मावर्त मँझार । पाछे करि संन्यास जगत्में विचरे परम उदार ॥ ८७॥ आठो सिद्धि भई सन्मुख जब करी न अंगीकार । जय जय जय श्रीऋषभदेव मुनि परब्रह्म अवतार ।।८८ब्रह्मसभामें यज्ञकियो जब करन वेदउच्चार । प्रकटभये हयग्रीव महानिधि परब्रह्म अवतार ॥ ८९॥ चार वेद लैगो शंखासुर जलमें रह्यो छिपाय । धरि हयग्रीव रूप हरिमारयो लीन्हें वेद छुड़ाय ॥ ९ ॥ सत्यव्रत राजा रघुवंशी प्रथम भये मनुवंश । कीन्हों तप बहु भांति परमरुचि प्रकट भये हरिअंश. ॥ ९१॥ धरि लघुरूप मीनको मोहन आये उनके पानि । तब उन जलमें डारिदियो फिर तब बोले हरि वानि ॥ ९२ ॥ जलके बीच डारि जिन मोको बडे मच्छ डर लाग । यह कहि बृहत रूप हरि धारेउ सत्यव्रत के भाग ॥ ९३॥ सतये दिवस होयगी परलय आवेगी इकनाव । तामें बैठ सप्तऋषि अरु तुम करो भजन ममभाव ॥९४॥ इतनो कहि हरिनृप देखतही भये जोअन्तर्धान। सात दिवस भयो जब परलय तब कीन्हों नृप ज्ञान ॥ ९९ ॥ सवहि अन्नको वीज लियो नृप और लियो ऋषि साथ । बैठो नाव ध्यान हरिको करि दर्शन दीन्हों नाथ ।। ९६ ॥ वासुकि नाग आय : तहँ तत्क्षण बांधी दृढकार नाव । पूंछयो ज्ञान को सो सब हरि तत्त्व विधान बनाव ॥ ९७ ॥ बहुत काललौं विचरे जलमें तब हरि भये सुशांति । बीस प्रलय विविध नानाकर सृष्टि रची बहुभांति ॥ ९८॥ यह हरि मच्छरूप जब लीन्हों कियोचरित विस्तार । जय जय जय श्रीमान महावपु जय जय जगत अंधार ॥ ९९ ॥ सुर अरु असुर मथन कीन्हों निधि चौदह रत्न निकार।। पर्वत पीठ धरेउ हरि नीके लियो कूर्म अवतार ॥ १०॥ हिरण्यकशिपु अति प्रवल दनुज है तपकीन्हों परचण्ड । तब उन बर दीन्हों चतुरानन कीन्हों अमरअखण्ड ॥ १.०१॥ जप तप गयो तवहिं मघवाने सब संपति गहि लीन्ही । गहे जब कच कामिनि राजाकी तब नारद सिख दीन्हीं : .॥१०२॥याके गर्भ बसतहै हरिजन सुनु सुरंपति यह बात । तव तजि दई आप लै आये निज आश्रम विख्यात ॥ १०३॥ नित प्रति ज्ञानकथा हंसनसों कहत रहत मुनिराज । सुनि प्रहलाद. प्रसन्न कोषिमें अति आनन्द समाज ॥ १०४॥ता पाछे तपकियो असुरवहु फिरि देख्यो निजधाम तब नारद मुनि दई कथा ध्रुव लैआयो है ग्राम ॥ १०५॥ पाछे लोकंपाल सबजीते सुरपति दियो उठाय । वरुण कुवेर अनि यम मारुत सुवस कियो क्षण माय ॥ १०६ ॥ हाहाकार भयो सुरलो कंन गये सवै अजपासातव अज ध्यान कियो माधवको वाणी भई अकास॥१०७॥सकललोक यह ॥ देत असुर दुख तऊ न करौं सँहार । जब मेरे जनको दुखदेहे क्षणहिमें डारौं मार ॥ १०८॥ जब प्रहाद प्रकट ताके गृह पांच वर्षके भैहैं। आदर बहु कीन्हों राजाने पढन विप्रगृह गैहैं ॥ १०९॥ जब वह विष पढ़ावै कुछ २ सुनके चित धरिराखै । जब वह जाय तबहिं सबहिनसों राम राम | मुखभाले ॥१५०. ॥ लरिका और पढ़त शालामें तिनहिं करत उपदेशाहरिको भजन करो सवही , -