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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५७३

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सूरसागर


तज्यो श्यामको अतिहि विकल पूछति नँदरानी ॥ अब बन सूनो भयो गिरिधर विनु गोकुल मणि विलगानी। दशरथ प्राण तज्यो छिन भीतर विछुरत सारंगपानी ॥ ठाढी रही ठगोरी डारी बोलत गदगद वानी । सूरदास प्रभु गोकुल तजि गए मथुराही मनमानी ॥९२॥ सारंग ॥ लै आवहू गोकुल गोपालहि । पाँइन परिकै बहु विनती करि बाल छलि वाह रसालहि ॥ अबकी बार नैक देख रावह यहि ब्रजनंद आपने लालहि । गाइन गनत म्बाल गोसुत सँग सिखवत वेणु रसालहि ॥ यद्यपि महाराज सुख संपति कौन गिने मोती मणि लालहि । तदपि सूर वे छिन न तजतहैं वा घुघुचीकी मालहि॥९३॥ सोरठ ॥सराहों तेरो नंद हियो । मोहन सों सुत छोडि मधुपुरी गोकुल आनि जियो॥ कहा कहीं मेरे लाल लडैते जब तू विदा कियो । जीवन प्राण हमारे व्रजको वसुदेव छोनि लियो ॥ कह्यो पुकारि पार पचिहारी वरजत गमन कियो । सूरदास प्रभु श्याम लाल धन ले परहाथ दियो॥९४॥ विलावला ॥ यद्यपि मन समझावत लोग । शूलहोत नवनीत देखि मेरे मोहनके मुखयोग ॥ निशि बासर छतियाँ लै लाऊं बालक लीला गाऊं । वैसे भाग बहुरि फिरि हैंहैं मोहन मोद खवाऊं ॥ जाकारण मुनि ध्यान धरै शिव अंग विभूति लगावै । सो वालकलीला धरि गोकुल उखल साथ बँधावै ॥ विदरत नहीं वज्रको हृदय हरि वियोग क्यों सहिए । सूरदास प्रभु कमल नैन विनु कौने विधि ब्रज रहिए॥९५॥ कान्ह रो॥ नंदब्रज लीजै ठोंकि बजाइ । देहु विदा मिलि जाहि मधुपुरी जहँ गोकुलके राइ । नैनन पंथ गयो क्यों सूझ्यो उलटि दियो जब पाइ ॥ रघुपति दशरथ सुनीहै पर मरिवे गुण गाइ ॥ भूमि मशान विदित ए गोकुल मनहु धाइ धाइ खाइ। सूर दास प्रभु पास जाहिँ हम देखें रूप अघाइ॥९६॥ सोरठा॥ माईहौ किन संग गई। हो ए दिन जानतही बूडी लोगनकी सिखई।मोको वैरी भए कुटुंब सब फेरि २ व्रज गाडी । जो हौं कैसेहु जान पावती तौ कत आवत छांडी ॥ अवहौं जाइ यमुनजल वहिही कहा करौं माहिं राखी। सूरदास वा भाइ फिरतहौं ज्यों मधुतोरे माखी ॥९७॥मलार॥ हौं तौ माई मथुराही पै जैहौं । दासी है वसुदेव राइकी दरशन देखत रहौं । राखि राखि एते दिवस मोहिं कहा कियो तुम नीको । सोऊ तो अकर गए ले तनक खिलौना जीको ।। मोहिं देखिकै लोग हँसँगे अरु किन कान्ह हैसै । सूर अशीश जाइ देहौं जिनि न्हातहु वार खसै ॥९८॥सारंगा॥ पंथी इतनी कहियो बात। तुम विनु इहां कुँवर वर मेरे होत जिते उतपाता॥ वकी अघासुर टरत नटारे बालक वनाहिं नजात । ब्रिजापिंजरी रुधि मानो राखे निकसनको अकुलात ॥ गोपी गाइ सकल लघु दीरघ पीत वरण कृश गात । परम अनाथ देखियतः तुम विनु केहि अवलंविये प्रातःकान्ह कान्ह कै टेरत तबधौं अब कैसे जिय मानत ॥ यह व्यवहार आजुलौं है ब्रज़ कपट नाट छल ठानतादशहूं दिशिते उदित होतहै दावानलके कोटाआँखिन नदि रहत सन्मुख नाम कवचदै ओट ॥ ए सब दुष्ट गते अरिजेते भट एकही पेट । सत्वर सूर सहाइ करौ अब समुझि पुरातन हेट॥९९॥ सारंग॥कहियो श्यामसों समुझाइवह नातो नहिं मानत मोहन मनौ तुम्हारी धाइ ॥ एक बार मांखनके काले राखे मैं अटकाइ । वाको विलग मानो जिनि । मोहन लागत मोहिं बलाइं॥ बारहि वार इहै लवलागी गहे पथिकके पाँइ । सूरदास या जननीको जिय राखौ वदन देखाइ ॥ २७०० ॥ बिलावल ॥ यद्यपि मन समुझावत लोग । शूल होत नवनीत देखि मेरे मोहनके मुखयोग ॥ प्रातकाल उठि माखन रोटी को विनमांगे देहै । अब उहि मेरे कुँवर कान्हको छिन छिन अंकम लैहै ॥ कहियो पथिक जाइ घर आवहु रामकृष्ण दोउ भैया । सूरश्याम कत होत दुखारी जिनकै मोसी मैया ॥ १ ॥ रामकली ॥ मेरो कहा करतु वहै । कहियहु