पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५७४

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दशमस्कन्ध-१. " .. (२८) जाइ वेगि पठवहिं गृह गाइनिको द्वैहे ॥ दीजै छॉडि नगर वारी सब प्रथम चोरि प्रतिपारो। हमहं जिय समुझ नहि कोऊ तुम तहि हित हमारो । आजहि आज काल्हि काल्हिहि कारे भलो जगत यश लीन्हों। आजहुँ काल्हि कियो चाहत हो राज्य अटल करिदीन्हों | परदा सूर बहुत दिन चलती दुहुँदुनि फवती लूटिअिंतहु कान्द आयहो गोकुल जन्म जन्मकी बूटि॥२॥संदेशो देवकोसों कहियो । होतो धाइ तुम्हारे सुतकी मया करति रहियो । यद्यपि टेव तुम जानत उनकी तक मोहिं कहि आवे । प्रातहि उठत तुम्हारे कान्हको माखन रोटी भावे ॥ तेल उबटनो अरु तातो जल ताहि देखि भजिजातेाजोइ जोइ मांगत सोइ सोइ देती कम क्रम करि करि न्हात।सूर पथिक सुनि मोहि रैनि दिन वढयो रहत उरसोच । मेरो अलक लडैलो मोहन बहे करत सँकोच ॥३॥ सोरठ । मेरो कान्ह कमलदल लोचन । अवकी वेर बहरि फिरि आवहु कहालगे जिय सोचन ॥ यह लालसा होत जिय मेरे बैठी देखतरहीं । गाइचरावन कान्हकुँवरसों भूलि न कबहूँ कहौं ॥ करत अन्याय न वरजी कवहूं अरु माखनकी चोरी । अपने जियत नैन भरि देखों हरि हलधरकी जोरी।। एक वेर वजाहु इहाँलों अनत कहूँके उत्तराचारिह दिवस आनि सुखदीजे सूर पहुनई सुतर ॥४॥ अथ पंथीनाक्य देवकी मति ॥ आगावरी ॥ हों इहां गोकुलहीते आई । देवकी माई पाँइ लागति हो यशुमति इहां पठाई ।। तुमसों महरि जुहार को है कहहु तो तुमहिं सुनाऊं । वारक बहुरि तुम्हारे सुतको कसेहुँ दरशन पाऊं ॥ तुम जननी जग विदित सूरप्रभु हौं हरिकी हितधाइ । जो पटबहु तो पाहुन नाते आवहि वदन दिखाइ ॥५॥ सारंग ॥ जो परि राखतही पहिचानि । तो अब के वह मोहन मूरति मोहिं देखावहु आनि । तुम रानी वसुदेव गेहनी हौं गवारि व्रजवासी ! पठे देह मेरो लाड़ लड़ती वारों ऐसी हाँसी ॥ भली करी कंसादिक मारे सब सुरकाज किये। अब इन गेयन कोन चराव भरि भारलेत हिये।।खान पान परिधान राजसुख जो कोउ कोटि लडा। तदपि सूर मेरे वारे कन्हैया माखनही सचुपावे ॥६॥ सोरट ।। मेरे कुँचर कान्ह वितुं सब कछु वैसेहि धरयो रहे । को उठि प्रात होत ले माखन कोकर नेत गहै ।। सुने भवन यशोदा सुतके गुनिगुनि शूलसह । दिन उठि घेरतही घरग्वारिनि उरहन कोउ न कहै । जो ब्रजमें आनंद हो तो मुनिमन साह नगहे । सूरदास स्वामी विनु गोकुल कॉडीहू नलहै ॥६॥ अथ गोपीविरह अवस्था परस्परवर्णन ॥सारंग।। चलत गुपालके चले। यह प्रीतमसों प्रीति निरंतर है ना अरघपले ॥ धीरज पहिल करी चलिवे की जसी करत भजे । धीर चलत मेरे ननन देखे तिहिछिन अंशहले ॥ अंश चलत मेरी वलयन देखे भए अंग सिथले। मनचलि रह्यो हुतो पहिलेही सबै चले विमले । एक न चलै अव प्राण सूर प्रभु असलेट सालसले ॥ मलार ॥८॥ लोग सब कहत सयानी बातें । सुनतहि सुगम कहत नहिं आ वत बोलि जाइ नहि ताते|पहिले अग्नि सुनत चंदनसी सती बहुत उमहै। समाचार ताते. अरु सारे पाछे जाइलहे । कहत फिरत संग्राम सुगम अति कुसुमलता करिवार । सूरदास शिरदेत शूरमा सोई जान व्यवहार ॥ ९॥ वातनि सब कोइ जिय समुझावै । किहि विधि मिलनि मिले वै माधी सो विधिकोउ न वताव । यद्यपि जतन अनेक रचि विधि सारि अशन विरमा । तदपिहठी हमारे नेनन और न देखो भावे । वासर निशा प्राणवल्लभ तजि रसना और न गावै । सूरदास प्रभु प्रेमहि लगिक कहिये जो कहि आवे॥१०॥ नट ॥ सब मिलि करहु कछू उपावामार मारन चढेउवि, रहिनि करहु लीनो चाव ॥ हुताशन ध्वज उमगि उन्नत चलेउ हरि दिशवाउ । कुसुम शर रिपुनंद वाहन हरपि हरपित गाउ ।। वारि भव सुत तात नावरि अब न करिहों काउ । बार अवकी प्राण -