पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५७६

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दशमस्कन्ध-१० .८४८३.) अटको नैननके लेखे । इहै दोप दैदै झगरतहै तब निरखत मुख लगी क्योंन मेखे ॥ कैतो मोहि वताय दवकियो लगी पलक जडजाके पेपे । ते अव अब इनपै भरि चाहत विधि जोलिखे दरशन सुख रेखे ॥ यहिविधि अनुदिन जुरति जतनकरि गनत गए अँगुरिन अवसखे । सूरदास मुनि इनि झगरनिते नहिं चित घटत वदन विन देखे॥२२॥ इमन ॥ नाथ अनाथनकी सुधि लीजै ।गोपी गाइ ग्वाल गोसुत सब दीन मलीन दिनहि दिन छीजे ॥ नैन सजल धारा वादी अति बूडत ब्रज किन करगहि लीजै । इतनी विनती सुनहु हमारी वारकहू पतियाँ लिख दीजै ॥ चरणकमल दरशन नवनौका करुणासिंधु जगत यशलीज।सूरदास प्रभु आशमिलनकी एकवार आवन ब्रज कजि॥२३ ॥ सारंग ॥ दिशिआति कालिंदी अतिकारी । अहो पथिक कहियो उन हरिसों भई विरहन्वरजारी । मनु पयकते परी धरणिधुकि तरंग तलफ नित भारीतट वारू उपचार चूरजल परी प्रसेद पनारी। विगलित कच कुच कास कुलिन पर पंकजु काजल सारी ।। मनमें भ्रमरते भ्रमत फिरतहै दिशिदि शि दीन दुखारी। निशिदिन चकई वादि वकतहै प्रेममनोहर हारी । सूरदास प्रभु जोई यमुनगति सोइ गति भई हमारी॥२४॥परेखो कौन बोलको कोजीनाहरि जाति नपांति हमारी कहा मानि दुख लीजै । नाहिन मोर चंद्रिका माथे नाहिंन उर वनमाल ॥ नहि सोभित पुहपनके भूपण सुंदर श्यामतमाल । नंद नंदन गोपी जन वल्लभ अब नहीं कान्द कहावत ॥ वासुदेव यादव. कुलदीप क बंदीजन वरभावत । विसरयो सुख नातो गोकुलको और हमारे अंग ॥ सूरझ्याम वह गई सगाई वा मुरलीके संग २५॥ वटाऊ होहिं नकाके मीतसिंगरहत शिरमेलि ठगौरी हरत अचानक चीत । मोहे नैन रूप दरशनके श्रवण मुरलिका गीत ॥ देखतही हरिले जु सिधारे बांधि पछोरी पीत । याहीते झुकति इहै मग चितवति सुख जुभए विपरीत ॥सूरदास करु भली पिंगला आशा तजि परतीत॥२६॥ मठार ॥ कहा परदेशी को पतियारो। पीछेही पछिताहि मिलहुगे प्रीति बनाइ सिधारौ ॥ ज्यों मृगनाद नादके वीधे लाग्यो वान विसारो । प्रीतिके लिए प्राण वश कीनो हरि तुम यह विचारो ॥ वलि अरु वालि सुपनखा वापुरी हरिते कहां दुरायो । सूरदास प्रभु जानि भलेही भरयो भरायो डरायो ॥२७॥ मलार ॥ कहा परदेशीको पतिआरो। प्रीति वढाय चले मधुवनको विछुरि दियो दुखभारो ॥ ज्यों जलहीन मीन तरफत ऐसे विकल प्राण हमारो । सूरदास प्रभुके दरशन विनु ज्यों विनु दीपक भौन अंधियारो ॥२८॥ आसावरी ॥ सखीरी हरिको दोप जनि देहु । ताते मन इतनो दुख पावत मेरोई कपट सनेहु ॥ विद्यमान अपने इननैननि सूनो देखति गेहु । तदपि सखी ब्रजनाथ विना उर फटि नहोत वडवतु॥ कहि कहि कथा पुरातन सजनी अब जिन अंतहि लेहु । सूरदास तन योवकरौंगी ज्यों फिरि फागु न मेह॥२९॥ मलार।अब कछु औरहि चाल चली।मदनगोपाल विना या तनुकी सवै वात बदली। गृह कंदरा समान सेज भई चाहि सिंहहू थली । शीतल चंद्र सुतौ सखि कहियत तिनहूं अधिक जली ॥ मृगमद मिलय कपूर कुमकुमा सीचति आनि अली। एकन फुरत विरह ज्परते कंछु लाग ति नाहिं भली।वह ऋतु अमृत लता सुनि सूरज अब विपफलनि फली। हरि विधु मुख नहिं नहिं नै फूलति मनसा कुमुद कली३०॥सारंगाइहि वेरिया बनते व्रज आवते।दूरहि ते वह वैन अधर धरि वारंवार वजावतेकबहुँक काहू भाँति चतुर चित अति ऊंचे सुरगावत कबहुँक लैलै नाम मनोहर धवरी धेनु बुलावते।।इहि विधि वचन सुनाय श्याम घन मुरछे मदन जगावते।आगम सुख उपचार -विरह ज्वर वासर ताप नशावते ॥ रचि रचि प्रेम पियासे नैनन क्रम क्रम बलहि वदावतें। सूरदास