पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५७८

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दशमस्कन्ध-१० (४८५, पुनि कीन्हे वैसेई वेत विपान । सूरदास ऐसी ए कछु यह समुझतहैं अनुमान ॥४०॥धनाश्री। ऐसो कोऊ नाहिने सजनी जो मोहनै मिलावै । वारक बहुरि नंदनंदनको यहाँलौं लै आवै ॥ पाइन पर विनती करि मेरी यह सब दशा सुनावै । निशि निकुंज निशि केलि परमरुचि रास रंगकी सुर . ति करावे।और कौनहूं बातकी सकुच न सब विधिको उपजावै । पुनि पुनि सूर इहै करि हरिसोंलो चन जरतवुझावै॥४॥केदारोगबहुरयो देखियो वहिभांतिाअशन वांटत खात बैठे बालकनकापति॥ एकदिन नवनीत चोरत होरही दुरिजाइनिरखि मम छाया भने मैं दौरि पकरे धाइ ॥ पोंछ कर मुख लिए कनियां तबगई रिसिभागि । वह सुरति जियजाति नाही रहो छाती लागि । जिनि घरनि वह मुख विलोक्यो तेलगत अवखान । सर विनत्रजनाथ देखेरहत पापी प्रान॥४२॥रामकली। मरियत देखिवेकी हौसनि । जिनि सतकल्प पलक वरजाते अबसुरही दुखमोसनि ॥ पलकभरेकी ओट नसहती अब लागे दिनजानाइतनेहू पर विन साखन घर घट निकसत नहिं प्रान।यदपि मोहि बहुतै समुझावत सकुचन लीजतु मानिाअंतर हेर जरत बिन देखे कौन वुझावै आनि । कुविजा पै आवन क्यों पावत अब तो परि है जानिगालीन वडी यहऊकी सब वात पाछिली ते सब गानि । आए सूर दिना द्वैतौ कहा तौ मानिवो समोसोकोटि बेरजल औटि सिरावै तऊ कहापति लौसौ४३ ॥ सारंग ॥ जिय हिय हौसे विच जे रही।सुनरी सखी श्याम सुंदर हँसि वहरि न वांह गही। अब वह दिवसबहार कव बैंहै ऐसे जानि संगहीकहां कान्ह कहारी अब हम कौन क्यारि वही कासों कहौं कहत नहिं आवै कहत परै न कही। जो कछ हुती हमारे हरिके हरिके संग निवही अपने कहतहि हलुकी लागै गोविंद गुणनदही । सूरदास काटे तरुवर ज्यों ठगढी रटत रही॥४४॥तश्री। कहा लौं मानौं अपनी चूक । विन गोपाल सखीरी यह छतियां छै न गई बैटूक ॥ तन मन धन यौवन ऐसे भए भुअंगमको फूक । हृदय जरत है दावानल ज्यों कठिन विरहकी ऊक ॥ जाकी मणि शिरते हरि लीनी कहा कहत अति मूकासूरदास ब्रजवास वसी हम मनो दाहिनोसूकम्॥४॥मलार॥ भलो ब्रजभयो धरणिते स्वर्ग । तब इन पर गिरि अब गिरि पर ए प्रीति किधी यह दुर्गा।सुरवासुर छलवोलवरी गढ अत्र अवधि मिति खूटी।प्रिय पति विरह मदन गढ घेरयो एकौ अलग न टूटी। नैन तडाग श्रवण मूरति मठ यंत्र सकत वरवानी । रास काले घन पौरिकोटमनु देखि अमर रज धानी ॥ गोरंभन गोपाल गरजनिधन धूमि दुंदुभिन रोकी। कंटक रोम कगूरनि प्रति मनो अपनी अपनी चौकी । चढत त्रिभंगी सौंज साजि सत नही पल आखी । देखहु सूर सनेह श्यामको गग न मंडल हम राखी॥४६॥सखीरी हरि पनि हरि दुख भारी।सिंहको सुत हर भूपण ग्रसि सोइ गति, भई हमारी ॥ शिखर बंधु अरि क्योंन निपारत पुहुप धनुपकै विशेप । चक्षु श्रवा उरहार ग्रसी ज्यों छिन द्वितिया वपुरेप ॥ घटसू अशन समै सुत आनन अमी गलित जैसे मेत । जलधर व्यो म अंबुकन मुंचत नैन होड वदि लेत ॥ द्विजपति प्रभु मिलि आनि मिलावहु हरि सुत आरति जानि । जैसे हार कर बंध प्रगट भए हरी आरती मानि ॥ पट आनन वाहन कानन मे धन रज नीसहावासी । सूरदास प्रभु चतुर शिरोमणिसुनि चातक पिक त्रासी॥४७॥रागसोरठ ॥ कहा दिन ऐसेही जैहैं । सुन सखिमदनगोपाल अबकिन ग्वालन संग हैं। कबहूँ जात पुलिन यमुनाक बहुविहार विधि खेलतः। सुरतहोत सुरभी सँग आवत बहुत कठिन करि झेलत । मृदु मुसुकानि आनि राखो पिय चलत कहाँहै आवन । सूर सो दिन कबहूं तो वह मुरली शब्द सुनावन ।। ४८ मलार ॥ श्याम सिधारे कौने देश । तिनको कठिन करेजो सखीरी जिनको पिय परदेश ॥उन ।