पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५७९

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(४८६) सुरसागर। . . . . . . . . . . ऊधो कछु भली नकीन्ही कौन तजनको वैस । छिन विनु प्रान रहत नहिं हरिविनु निशिदिन अधिक अंदेस ॥ अतिहि निठुर पतियां नहिं पठई काहू हाथ सँदेश। सूरदास प्रभु यह उपजतहै धरिए योगिनिवेस १९॥ मलार गोपालहि पावौं धौं केहि देश। शृंगी मुद्रा कनक खपरले करिहौं योगिनि भेस ।। कथा पहिरि विभूति लगाऊं जटा वधाऊं केश. । हार कारण गोरखहि जगाऊं जैसे स्वांग महेश ॥ तन मन जारों भस्म चढाऊं विरहिन गुरु उपदेश । सुरश्याम विनु हम, ऐसी जैसे माणि विन शेश ॥५०॥ केदारो॥ फिरि ब्रज आइए गोपालानंद नृपति कुमार कहिहैं अब न कहिहैं ग्वाल ॥ मुरलिका सुर सप्त दिशि दिशि चले निसान बजाइ । दिग्विजयको युवति मंडल भूप परिहैं पाइ॥ सुरभीसेन सुसखा भट सँग उठेगी खुररैनु । आवत पत्र मयूर चंद्रिकाल सतिहै रवि ऐनु ॥ सदस पति मधुकरनि करवर मदन आयसु.पाइ । द्रुम लता वन कुसुम वानकु वसन कुटी बनाइ सकल खग गण पैक पायक पँवरिया प्रतिहारासमै सुख गोविंद ब्रजको कहत सूर विचार ॥५१॥ जैतश्री|फिारकै वसो गोकुलनाथाअब न तुमहिं जगाय पठवें गोधननके साथावर न माखन खात कबहूँ दह्यो देत लुटाय। अब नदेहिं उराहनो यशुमतिहि आगे जाइ ॥ दौरि मादन देहिंगी लकुटी यशोदा पानि । चोरी नदहि उपारि कै अवगुण कहिहैं आनि ॥ कहिलै न चर णन देन जावक गुहन वेनी फूल । कहिलै न करन शृंगार कवहीं वसन यमुना कूल ॥ करिहैं न कवहीं मान हम हाठि हैं न मागत दान । कहिलै न मृदु मुरली बजावन करन तुमसो गान ।। देहु दरशन नंदनंदन मिलनहूंकी आशासूर हरिके रूप कारन मरत लोचन प्यास॥१२॥ जैतश्री ॥. हरिसों प्रीतम क्यों विसराहि । मिलन दूरि मन वसत चंद्रपर चितचकोर पछिताहि ॥ जलमें रहहि जलहि ते उपजहि जलही विन कुँभिलाहि । जलतजि हंस चुगै मुक्ताफलं मीन कहाउ डिजाहि । सोइ गोकुल गोवर्धन सोई सोइ किन करहि अब छाहि । प्रगटनप्रीति करै परदेशी सुख केहि देश समाहि ॥ धरणी दुखित देखि वादर अति वर्षाऋतु वरषाहि । सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन बिन दुख क्यों हृदय समाहि ॥ १३ ॥ वारक जाइबो मिलि माधो । को जाने तनु छूटि जाइगो शूलरहै जिय साधो ॥ पहुनेहु नंद बबाके आवहु देखिलेउँ पलं आधो । मिलेही. में विपरीति करी विधि होत दरशको बाधो ॥ सो सुख शिव सनकादि नपावत सोसुख गोपिन लाधो । सूरदास राधा विलपतिहै हरिको रूप अगाधो ॥५४॥ अथ नैनमस्थांबुपद ॥ मलार ॥ वारकनैनहूं मिलि जाहु । कमलनैन घनश्याम राधिकहि परसत जो न पत्याहु.॥ जानतहाँ कर कमल विरोधी वरन विरोधी वाह । शशिमुख शत्र पयोधर गिरि अति तहाँ तुम. क्यों वसमाहु ॥ गज गति मंद मराल विरोधी हेमं सुरुचि रिपु दाहु । जंघ कदलि कटि सिंह विरोधी न्यायनिरखि सकुचाहु ॥ नीन्हिलहे चितचोर सकलसँग एकै सुपत नशाहु । तदपि सूर उनकी रुचि राखहु कत अधिकै वडराहु॥६६॥ सारंग ॥ नैननको मत सुनो सयानी। निशिदिन तपति सिरात नकवहूं यद्यपि उमँगि चलत पटपानी ॥ होउपचार अमित आनत उर खल भयो लोक लाज कुलकानी । कछु नसोहाइ दही दरशन दौ वारिज वदन मंद मुसुकानी ।। रूप लकुट' अभिमान मनहु उलटी उन मांझ समानी। आरंज पथ गुरु ज्ञान कुपित कुरि सूरज विकल समानी.॥५६॥ मलार । सखी इन नैनन ते.घन हारे । विनही ऋतु वरषत निशि वासर सदा मलिन दोउ तारे ॥ उरघ श्वास समीर तेज अति सुख अनेग दुमडारे । दिशन सदन करि वसे वचन खग.. दुखपावसके मारे ॥ दुरि हरि बूंद परत कंचुकि पर मिलि अंजन सों कारे । मानों परमकुटी । शिवकीन्हीं विवि मूरति धरि न्यारे । सुमिरि सुमिरि गर्जत जल छांडत अंश संलिलके धारे।