पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५८०

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दशमस्कन्ध-१० (४८७, बूडत ब्रजहि सूरको राखै विनि गिरिवर धर प्यारे॥५७नैना सावन भादौं जीने । इनही विपे आनि राखे मनो समुदनिहूजलरीते॥ वै झरलाय दिनाकै उपरत ए भूलिन मारग देत । वै वर्षत सबके सुख कारण ए नँदनंदन हेत ॥ वे परिमान पुजै दह मानत ए दिन धारन तोरत । यह विपरीति होति देखति हो विना अवधि जग वोरत ॥ मेरे जीव ऐसी आवत भइ चतुराननकी सांझ। सूर विन मिले प्रलय जानिवो इनहीं दिवसान सांझ ॥५८॥ निशि दिन वरपतु नैन हमारे । सदा रहत वनितु हमपर जयते श्याम सिधारे ॥ नन अंजन न रहत निशि वासर कर कपोल भए कारे॥ कंचुकि पट सूखतनाह कबहूँ उर विच वहतपनारे। ऐसे सलिल सवै भई काया पल न ! जात रिसटारे । सूरदास प्रभु गोकुल वूडत काहेन लेत उवारे॥१९॥सारंगानैनन नाचौहै झर । ऊंचे चढि टेरत अति आतुर सुरकहि गिरिधर गिरिधर ॥ फिरति दशन ज्यों झप सूखे सर। कौन कौनकी दशा कहौं सुन सब व्रज तिनते पर ॥ निशि दिन कलमलात सुन सजनी शिरपर गाजत मदन अर । सूरदास प्रभु रही मौन? कहि न सकति मैनके भर ॥६ ॥ अति रस लंपट मेरे नैन । तृप्ति न मानत पिवत कमल सुख सुंदरता मधु वैन ॥ दिन अरु रैनि दृष्टि रसना रस निमिप न मानत चैन । सोभा सिंधु समाइ कहालौं हृदय सांकरे ऐन । अब यह विरह अजीरण कैकै वमिलाग्यो दुख देनासूर वैवज नाथ मधुपुरी काहि पठाऊं लेन॥६॥केदारो॥ हरि दरशनको तरसत आँखियां । झांकति झपति झरोखा बैठी कर पीडत ज्यों मखियां ॥ विछुरी वदन सुधानिधि रिसते लगत नहीं पल खियां । इकटक चितवति उडिपन सकति जनु थकित भई लखि सखियां ॥ बार बार शिर धुनति विसूरति विरह ग्राह जनु भखियां । सूर स्वरूप मिले ते जीवहि काटि किनारे नखियां।६२|सारंग ।। लोचन व्याकुल दोऊ दीन । कैसे हैं दरश विन देखे विधु चकोर ज्यों लीन ॥ विवरन भए खंज जो दाधे वारिज ज्यों जल हीन । श्याम सिंधु सों विछु रि परे हैं तरफरात ज्यों मीन।।६३॥ज्यों रतिराज विमुख भृगीको छिनु छिनु वाणी हीन । सूरदास प्रभु विन गोपालही कत विधने एई कीन ॥ महा दुखित दोउ मेरे नैन । जादिनते हरि चले मधु पुरी नेकु नकवहूं कीनो सैन । भरे रहत अति नीर न निघटत जानत नहिं दिन रैन । महादुखित अतिही भ्रम माते विन देखे पावत नहिं चैन ॥ जोकबहूं पलको नहिं खोलत चाहन चाहत मूरति मन।छाँडत छिन में एजो शरीरहि गहिकै व्यथा जात हरि लैन ।। रसना इहई नेम लियो है और नहीं भापों मुख वैन । सूरदास प्रभु जवते विछुरे तवते सब लागे दुख दैन॥६॥ अँखियां करतिहैं अति आर । सुंदर श्याम पाहुनेके मिसि मिलि न जाहु दिनचार ॥ वाँहथकी वायसहि उडावत कर देखो उनहार । मैंतो श्याम श्याम के टेरति कालिंदीके करार ॥ कमल वदन ऊपर दुइ खं जन मानो वूडत वारासूरदास प्रभु तुम्हरे दरश विनु सकन पंख पसार ६६धनाश्री।लोचन लालच ते नटरौहार मुखए रंग संग विधे दाधौ फिर जगज्यों मधुकर रुचि रच्यो केतकी कंटक कोटि अरै। तैसोई लोभ तजत नहि लोभी फिरि फिरि फिरी फिरैमग ज्यों सहत सहज सरदारन सन्मुख ते नटराजानत आहि हते तनु त्यागत तापर हितहि करौसमुझि न परै कवन सच पावत जीवत जाइ मरै । सूर सुभट हठ छांडत नाही काटो शीश लरै॥६६॥सारंग लोचन चातक जीवो नहिं चाहता अवध गए पावसकी आशा क्रम क्रम करि निरवाहत ॥ सरिता सिंधु अनेक अवर संखी विलसत पति सजन सनेह । ए सब जल यदुनाथ जलद विनु अधिक दहत है देह ॥ जवलगि नहि वरपत ब्रज ऊपर नौचन श्याम शरीरातो इह तृपाजाय क्यों सूरज आनि वोसके नीर ६७॥ मलार || नैनन ।