पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५८२

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दशमस्कन्द-१०

कुंजविहारी। नींद नपरै पटै नहि रजनी व्यथा विरह ज्वर भारी ॥ हों उठि सखी ऑगनआई जगमगि रही जियारी।श्रवणशब्द सुहाइ नसखीरी यमचातक दुमडारी।उरते सखी दूरि कर हारह कंकन धरहु उतारी।सूरदास प्रभु विनु अतिव्याकुल कार वह जतन जुहारी ॥७८ ॥नया सुपन में देखिये जो नैननि नींद परै । विरहिनि व्रजनाथ विन कहि कौन उपाइ करै ।। चंदमंद समीर शीत ल सेज सदा जरै। कहा करौं कौनी भांति मरौं मन न धीरज धेरै ॥ बहुत उपाइ करै विरहिनि | कछु नचाव सरे।सूर शीतल कृष्णविन कहौ कौन ताप हरै ७९॥सारंगोइतनी दूरि गोपालही कबहुँ. मिलि आई । कहिए कहा दोपदीजै किहि अपनीही जडताई । सोवत महा मनो सुपने सखि अवधि निधन निधि पाई । गनतहि आनि अचानक कोकिल उपवन बोले जगाई । जो जागों तो कहा उठि देखों विकल भई अधिकाई । किसले कुसुम नव नूत दशहु दिश मधुकर मदन दोहाई॥.विछुरत तनु नाम ज्यों हठि तिहि छिन गई नहीं सगुमाई । समुझि नपरी सुर दोहेदिन हरि हसि.कंठ लगाई ॥८॥ धनाश्री तिवहीं जै इह हेति कहा । जहां वैश्याम मदन मूरति चल मोहि लवाइ तहां कुटिल अलक मकराकृत कुंडल सुंदर नैन विशाल । अरुन अधर नासिका मनोहर तिलक तरनि शशिभाल ॥ दशनज्योति दामिनि ज्यों दमकति बोलत वचन रसाल । उर विचित्र वनमाल बनी जनु कंचन लता तमाल । धन तन पीत वसन शोभित अति अलिके वलै परागाविपुल वह अति कृत परिरंभन मनहुँ मराए द्रुमनाग । सोवतिही सुपने महि सोचति सत्य जानि जिय जागी । सूरदास प्रभु प्रगट मिलनको चातक ज्यों लवलागी ॥ ८१ ।। मलार ॥ सुपने हरि आएहो किलकी । नींदजो सौति भई रिपु हमको सहि नसकी रति तिलकी ॥ जो जागों तो कोऊ नाहीं रोके रहति नहिलकी । तब फिरि जरनि भई नख शिखते दिआवात । जनु मिलकी । पहिली दशा पलटि लीनीहै त्वचा त्वचकि तनु पिलकी । अब कैसे सहिणात हमारी भई सूर गति सिलकी ॥८२॥ कान्हरो ॥ मैं जान्योरी आए हैं हरि चौंकि परेते.पछितानी । इते मान तन तलफत वहिते जैसे मीन तट विन प्रानी ॥ सखी सुदेह ते जरति विरह ज्वर तनु पुनि पुनि नहिं प्रकृत्यो आनी । कहा करौं अपथि भई मिलि बढी व्यथा दुख दुहरानी॥ पठवो पथिक सब समाचार लिखि विपति विरह वपु अकुलानी । सूरदास प्रभु तुम्हरे दरश विना.कैसे घटत कठिन कामी ॥८३।। मलार ॥ ज्यों जागो तो कोऊ नाही अंत लगी पछितानाहौं जानौ साँच मिले माधो भूली यहि अभिमान ॥ नींद माहिं मुरझाई रहिहो प्रथम पंच संधान । अब उर अंतर मेरी माई सपने छुटी छलिवान ॥ सूर सकत जैसे लछिमन तन विह्वल होइ मुरझान । ल्याउ सजीवन मूरि श्यामको तो रहिहैं ए प्रान ॥ ८४॥ कल्याण । हरि विछुरन निशि नींद गईरी । वन प्रिय वरह शिली मुख मधुपति वचननिहीं अकुलाईरी ॥ वह जु हुती प्रतिमा समीपकी सुख संपति दुरंतजईरी । ताते भर हरि सुनरी सजनी सेज सलिल हगनीरमईरी ॥

अवऊ अधार जु प्राण रहत हैं इनिवशहिन मिलि कठिन ठईरी । सूरदास प्रभु सुधारस विना भई सकल तनु विरह रईरी ॥ ८५ ॥ केदारो ॥ बहुरयो भूलि न आखि लगी। सुपनेहूँके सुख न सहिसकी मीद जगाइ भगी ॥ बहुत प्रकार निमेप लगाए टि नहीं शठगी।जनु हीरा हरि लिए हाथते ढोल वजाइ ठगी ॥ कर मीडति पछिताति विचारति इहि विधि निशाजगी । वह मूरति वह सुख दिखरावै सोई सूर सगी ॥८६॥धनाश्री।। अब सखी नीदौ तो। गई । भागी जिय अपमान जानि जनु सकुचनि ओट लई ॥ अति रिस अहनिशि कत किए वश

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