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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५८४

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दशमस्कन्ध-१०


कहिए केहि पाहै ॥९७॥सारंग॥ मनकी मनही मांह रही । जब हरि स्थ चढि चले मधुपुरी सव अज्ञान भही ॥ मति बुधि हरी परी धरणी पर अति वेहाल खरी । अंकुश अलक कुटिल भए आशा ताते अवधि वरी॥ ज्यों विनु मणि अहि मूक फिरतहै यों विधि विधि विपरीत धरी। मनतो रह्यो पंथ सूरज प्रभु माटी रही धरी ॥९८॥ मेरो मन वैसे सुरति करै । मृदु मुसुकानि नक अवलोकनि हृदयेते नटरै । जब गोपाल गोधन सँग आवत मुरली अधर धरै । मुखके रेणु झारि अंचल सों यशमति अंग भरै ॥ संझा समय घोपकी डोलन वह सुधि क्यों विसरै । सूर दास प्रभु दरशन कारण नैनन नीर ढरै ॥९९॥आसावरी॥ जाको मन लाग्यो दलालहि ताहि और क्यों भावहो । जैसे मीन दूधमें डारै जल विनु सच नहिं पावैहो । अति सुकुमार डोलत अंगनही परि काहू नजनावेही । जैसे सरिता मिलै सिंधुको उलटि प्रवाह न आवैहो । ऐसे सूर कमल लोच न विनु मन नहिं अनत लगावैहो ॥२८००॥सारंग कहां लौं रखिए मन विरमाई।इकटक शिव घरे । नैन लागत श्यामसुता सुत धन आई ।। हर वाहन दिव वास सहोदर तिहि मात उदित सुरछि मुहि जाई । गिरिजापति रिपु नख शिख व्यापत वंश सुधा पिय कथा सुनाई ॥ विरहिनि विरह आपु वश कीन्हें लेउ कमल जिमि पाइ छुआई । वेगि मिलौ सूरके स्वामी उदधितनया पति मिलिहै आई॥१॥ मारू॥ कमल नैन अपने गुनन मन हमारी वाध्यालिागत तो जानो नहि विपम वाण साध्यो, कठिन पीर वाँध्यो शरीर मारि गयो माई । लागत तो जानो नहिं अवसहो न जाई ॥ मंत्र तंत्र जेतिक करौं तउ पीर नताई । हैकोट उपचार करै कठिन दरद माई । कैसे नंदलाल पावों नेक मिलौं धाई । सूरदास प्रेम फंद तोरो नहिं जाई॥२॥सोरठ॥ हरि हमसों करीरी माई मीन जलकी प्रीति । इतनी दूरि दयालु माधौ गई अवधि व्यतीति ॥ तलफिकै उन प्राण दीनों प्रेमकी परतीति । नीर निकट न पीर जानी व्यर्थ गयो व वीति ॥ चलत मोहन कहो हमसों आइहैं रिपुजीति । सूरवा ब्रजनाथके जिय सबै उलटी रीति ॥३॥धनाश्री॥ मति कोई प्रीतिक फँग परै। सादर संत देखि मन मानौ पेखै प्राण हरै ॥ या पतंग कहा करम कीन्हों जीवको त्याग करें। अपने मरते नडरतहै पावक पैठि जरे ॥ भौकरत नहीं ताहि निपाते केतिक प्रेम धरै। सारंग सुनत नाद रस मोझो मरिवते नडरै । जैसे चकोर चंद्रको चाहत जल विन मीन मरै । सूर प्रभुसों ऐसे करि मिलिए तो कही कानसरे॥४॥सारंगा॥प्रीति करि काहू सुख न लह्यो।प्रीति पतंग करी दीपकसों आप प्राण दह्यो। अलिसुत प्रीति करी जलसुत सों संपति हाथ गयो । सारंग प्रीति करी जो नाद सों सन्मुख वान सह्यो ॥ हम जो प्रीति करी माधौ सो चलत नकळू कह्यो। सूरदास प्रभु विनु दुख दूनो नेनन नीर वयो॥५॥मलार॥ प्रीति तो मरनऊ न विचारै ।। प्रीति पतंग ज्योति पावकज्यों जरत नआए सँभाप्रीति कुरंग नाद स्वर मोहित वधिक निकट है मारे। प्रीति परेवा उडत गगनते गिरत न आपु सँभार । सावन मास पपीहा बोलत पिय पिय करि जो पुकारै । सूरदास प्रभु दरशन कारन ऐसी भांति विचारै ॥६॥ जिन कोउ काहके वश होहि । ज्यों चकई दिनकर वश डोलति मोहिं फिरावत मोहि ॥ हमती रीझि लटूभई लालन महाप्रेम तिय जानि । वैध अबंध अमति निशिवासर को सरझावति आनि ॥ उरझे संग अंग अंग प्रति विरह बेलिकी नाई । मुकुलित कुसुम नयन निद्रा तजि रूप सुधा सियराई ॥ अति आधीन हीन मति व्याकुल कहा लों कहों बनाइ । ऐसी प्रीति करी रचना पर सूरदास बलिजाइ ॥८॥नट॥ दिनही दिन को सहै वियोग । यह शरीर नाहिन मेरो सखी इहै विरह ज्वर योग ॥ रचि सक