पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५८५

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(.४९२) सूरसागर । कुसुम सुगंध सेज सजि वसन कुमकुमा वोरािनलनी दलनि दूरि कार उनते कंचुकिके बंद छोरि॥ बन बन जाइ मोर चातक पिक मधुवन टेरि सुनाई।उदित चंद चंदन चढाइ र त्रिविध समीर वहा ई॥रटि मुख नाम श्याम सुंदरको तोहिं सुनाइ सुनाई।तो देखत तनु होम मदन मुख मिलौ माघ वहि जाई । सूरदास स्वामी कृपालु भए जानि युवति रस रीति । तिहि छिन प्रगट भए मनमो हन सुमिरि पुरातन प्रीति ॥८॥ धनाश्री ॥ बहुरि न कवहूं सखी मिलें हरि । कमल नयन के कारण सजनी अपनो सोजतन रही बहुतै करि । जेइ जेइ पथिक जात मधुवन तन तिनहुँ सों व्यथा. कहति पाँइनि पार । काहू न प्रगट करी यदुपति सों दुसह दुरासा गई अवधि ढरि ॥ धीर न धर ति प्रेम व्याकुल चित लेत उसास नीरलोचन भरि । सूरदास तनु थकित भई अब कृष्ण विरह सों पर नसकति मरि ॥९॥ पावस समय वर्णनं ॥ मलार || ब्रजते पावस पैन टरी । शिशिर वसंत शरद गत सजनी बीती औधिकरी ॥ उनै उनै घन वरषत चप उर सरिता सलिल भरी । कुमकुम कन्ज ल कीच बहै जनु कुचयुग पारिपरी ॥ ताहूमें प्रगट विषम ग्रीषम ऋतु इतयो ताप मरी। सूरदास प्रभु कुमुद चंद्र विनु विरहा तरनि जरी ॥ १० ॥ अव वर्षा को आगम आयो । ऐसे निठुर भयो। नँदनंदन संदेशा न पठायो । वादर घोर उठे चहुँ दिशते जलधर गरजि सुनायो । एकै शूल रही मेरे जिय बहुरि नहीं बजछायो । दादुर मोर पपीहा बोलत कोकिल शब्द सुनायो । सूरदासके प्रभु सों कहियो नैनन है झरलायो॥११॥ माईरी एमेघ गाजै। मनहुँ काम कोपि चढो कोला हल कटक बढयो बरहा पिक चातक जैजै निसान बाजै ॥ बरन बरन वादर बनाए तव जगज बिराजै। दामिनि करवार करनि कंपत सब गात उरनि जलधर समेत सेन इंद्रधनुष साजै॥ ऐसे अभिलाष धीर विगत विरत ते न लाजै । अक्लनि अकेली करि अपने कुलनि ति विसरी अवधि संग सकल सूर भहराइ भाजै ॥ १२ ॥ ब्रजपर बदरा आए गाजन । मधुवनको पठए सुन सजनी फौजमदन लग्यो साजन ॥ ग्रीवारंध्र नैन चातकजल पिक मुखवाजे बाजन । चहुँदिशते तनु विरहा घेरो अब कैसे पावतु भाजन ॥ कहियत हुते श्याम परपीरक आए शंकरके काजन । सूरदास श्रीपतिकी महिमा मथुरा लागे राजन ॥ १३ ॥ देखियत चहुँदिशते धनघेरो। मानोमत्त मदनके हथियन बलकार बंधन तोरो॥श्याम सुभगतनु चुअत गंड मद वरषत थोरे थोरे । रुकत नपौन महावनहूपै मुरत न अंकुशमोरे ॥ वल वेनी बल निकास नयन जल कुच कंचुकि वंद वारे । मानों निकसि बगपांति दांत उर अवधि सरोवर फोरे । तवतेहि समै आनि ऐरापति ब्रजपतिसों करजोरे । अब सुनि सूर कान्हके हरि विन गरत गात जैसे वारे॥१४॥ ब्रजपर सजि पावस दल आयो। धुरवा धुंधि वढी दशहूँ दिशि गर्जिनिसान बजायो॥ चातक मोर इतर पै दागन करत अवाजें कोयल । श्याम घटा गज अशन वाजि रथ चितं वग पांति सजोयल ॥ दामिनि कर करवार बूंद शर इहि विधि साजे सैन ॥ निधरक भयो चल्यो ब्रज आवत अन फौज पति मैन ॥ हम अवला जानि कै तुम बल कहाँ कौन विधि कीजै । सूरश्याम अबके इहि ओसर. आनि राखि ब्रज लीजै ॥ १५॥ सखीरी पावस सैन पलान्योपायो वीच इन्द्र अभिमानी हरि विन गोकुल जान्यो । दशहु दिशा सों धूम देखियत कंपति है अति देह । मनहु चलत चतुरंग चमून ; भ वाढ़ी है खुर खेह ॥ वोलत मोर शैल दुम चढि चढि वग जु उडत तरु डारें । मनु सहना फह राइ फिरावत भाजन कहत पुकारे । गर्जत गगन गयंद गुजरत अरु दादुर किलकार। सूरदास | प्रभु अपने ब्रजकी काहेन करत सँभार ॥ १६ ॥ वदरिआ वधन विरहिनी आई। मारुत मोर करत..