पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५८६

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देशमस्कन्ध-१० (१९३ चातक पिक अरु नग शिखर सुहाई।। नदिया सुचर संदेश क्यों पठऊ वाट तृणनहू छाये।इक हम दीन हती कान्हर विनु औ इन गरजि सुनाए । सूनो घोप वैर तकि हमसों इंद्र निसान बनाए। सूरदास प्रभु मिलहु कृपा करि होति हमारे पाए॥१७॥ वरु ए वदराऊ वर्पन आए।अपनी अवधि जानि नँदनंदन गरजि गगन घन छाए ॥ कहियतहै सुरलोक वसत सखी सेवक सदा पराए । चातक पिककी पीर जानिकै तेउ तहांते धाए ॥ तृणकिए हरित हरपि पेली मिलि दादुर मृतक जिवाए । साजे निवड निडत न सिंचि सजि पंछिनहू मन भाए ॥ समुझत नहीं चूक सखी अपं नी बहुतै दिन हरि लाए।सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि मधुवन वास विसराए ।॥१८॥ बहुरि हरि आवहिंग किहि कामाऋतु वसंत अरु ग्रीपम वीते अव बादर भए श्यामा।तारे गनत गनत के सज नी वीते चारौ याम। औरो कथा सबै विसराई लेत तुम्हारो नामछिन अंतर छिन द्वारे ठाठी अरुं सूखतिहै घामासुरश्याम तादिनते विछुरे अस्ति रहीकै चाम।१९।किधौं धन गर्जत नहिं उनदेशनि। किधी हरि हरपि इंद्र हठि वरजे कधौं दादुर खाए शेपनि । किधौं उहि देशन गवन गम छांडे घरनिन बूंद प्रवेसनि चातक मोर कोकिला उहिवन वधिकन वधे विशेपनि ॥ किधौं उहि देश वालनहि झुलति गावति सखिन सुदेशनि । सूरदास प्रभु पथिक न चलही कासों कहौं संदेशनि ॥ ॥२०॥ देखोमाई श्याम सुरति अब आवे । दादुर मोर कोकिला बोलै पावस अगम जनावै ॥ देखि घटा धनचाप दामिनी मदन शृंगार वनावै । विरहनि देखि अनाथ नाथ विन चढि चढि बजपर आवै ।। कासों कहीं जाइ कोइ हरिपै यह वसुदेवसुनावै । सूरदास प्रभु मिलहु कृपांकरि व्रजवनिता सचपावै ॥२१॥ तुह्मारो गोकुलहो ब्रजनाथ । घरयोहै आर चतुरंगिनिले मन्मथ सेना साथ ।। गर्जत अतिगंभीर गिरा मन मैगल मत्त अपार । धुरवा धूरि उडत रथ पायक घोर नकी खुरतार । चपला चमचमाति आयुध वग पंगति ध्वजा अकार । परत निसाननिघावत मकि धनु तरपत जिहि जिहि वार । मार मार करत भट दादुर पहिरे बहु वरन सनाह । हरे । कवच उघरे देखियत मनो विरहान घाली आह । करै तौ गात अंग चातक पिक कहत भाजि जिनि जाहु । उरनि उरानि वे परत आनि वे जोधा परम उछाहु ।। भयो अहंकार सुभार सूरि वास | कति रही उरशालि । हम कत हाथ परे नाही गहि रहि नढाल संभालि ॥ अति घायल धीरज दुवाहिमा तेज दुर्जन दालि । टूक टूक है सुभट मनोरथ आने झोली घालि ॥ निशि वासरकै विग्रह आयो.अति संकेतहि पाउ । कापै करौं पुकार नाथ अब नाहिंन तुम विनु ठाँउ ॥ नंदकुमार | श्याम घन सुंदर कमल नैन सुखधाम । पठवहु वेगि गोहार लगावन सूरदास जिहि नाम ॥ २२ ॥ ऐसे में नसुध्यो करै अति निठुराई धरै उनै उनै घटा देखो पावसकी आईहै । चहुँ दिश घोर मोर | लागीहै मदन रोर पिककी पुकार उर आरसी लगाईहै ॥ दामिनिकी दमकनि बूंदनिकी झमकनि सेजकी तलफ कैसे जीजियत माईहै । लागेहे विसारे वान श्याम विनु युग याम घायल ज्यों घूमैं मनो विपहर खाईहै ।। मिटै न जियको शूल जातहै यौवन फूल घरी घरी पल पल विरह सताई है।जगतके प्रभु विनु कल नपरे छिनु ऐसे पापी पिय तोहि पीर न पराईहै ॥२३॥ ऐसो जो पावस ऋतु प्रथम सुरति करि माधोलू आवहि । वरन वरन अनेक जलधर अति मनोहर भेपं । तिहि समय सखी गगनसोभा सवहि ते सुविशेष।।उडत खग वग बूंद राजतरटत चातक मोराबहुल विधि. विधि हाचे वदावत दामिनी घनघोर ॥ धरनि तृण तनु रोम पुलकित पिय समागमंजानि । द्वमनि वरवल्ली वियोगिनि मिलतिहै पहिचानि ॥ हंस शुक पिक सारिका अलि गुंज नानानाद ।