पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५८८

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दशमस्कन्ध-१० (१९९) संपति सोमदन मिलिक करिपाई ॥ घनदामिनि वगपांति मनोवै वरपै तडित सुहाई । बोलत वगनिकेत गरजे अति मानो फिरत दोहाई ॥ गोकुल मोर चकोर मधुप शुक सुमन समीर सोहाई। चाहत वास कियो वृंदावन विधिसों कछु नवसाई ॥ सकत न जानत लागत सूनो कोउ हुते बल वीर कन्हाई।सूरदास गिरिधर विन गोकुल कौन कौन करिहै ठकुराई॥३२॥ बहुरि वन बोलन लागे मोर । करसंभार नंदनंदनकी सुनि वादरको धार ॥ जिनको पिय परदेश सिधारो सो तियपरी निठोर । मोहिं बहुत दुख हरि विछुरेको रहत विरहको जोर ॥ चातक पिक चकोर पपीहा ए सवही मिलिचोरासूरदास प्रभु वेगि नमिलहू जनम परतहै वोर॥३३॥यहि वनमोर नहीं एकामवान। विरह खेद धनु पुहुप भंग गुन करिल तरैया रिपुसमान। लयो घेरि मनो मृग चहुँ दिशते अचूक अहेरी नहिं अजान । पुहुपसेन धन रचित युगल तनु क्रीडत कैसो वन निधान ॥ महामुदित मन मदन प्रेमरस उमँगि भरे मैं मैनजानि । इहि अवस्था मिले सूरदास प्रभु वदरयोनानागदै जीवनदान ॥३४॥ आजु वन मोरन गायो आइजिवते श्रवण सुन्यो सुन सखिरी तवते रह्यो नजाइ।। बजते विछुरे मुरली मनोहर मनहुँ व्याल गयो खाइ । औपध वैद गरूरियो हरि नहिं मान मंत्र दोहाइ॥चातक पिक दुखदेत रैनि दिन पियपियवचन सोहाइ।सूरदास प्रभुतौ पैजीवहि जौ मिलिहै हरि आइ ॥३५॥ शिखिन शिखर चढि टेर सुनायो। विरहिनि सावधानदै रहियो सजि पावस दल आयो। नव वादल वानत पवन ताजी चढि चुटकि दिखायो।चमकत वीज शैलकर मंडित गरजि निसान बनायो । दादुर मोर चातक पिकके गण सब मिलि मारू गायो । मदन सुभट करवाण पंचलै व्रजतन सन्मुख धायो॥ जानि विदेश नंदको नंदन अवलन त्रास दिखायो।सुरश्याम पहिले गुण सुमिरिहि प्राण जात विरमायो ॥३६ ॥ हमारे माई मोरवा बैर परे। घन गर्जत वरज्यो नहि मानत त्यों त्यों रटत खरे। कार करि पंख प्रगट हरि इनको लैलै शीश धरे । ताही ते मोहन विरहिनिको एऊ ढीठ करे ॥ को जाने काहेते सजनी हमसों रहत अरे । सूरदास परदेश वसे हरि एवनते नटरे॥३७॥कोउ जाइ वरजौ बोलत मोरनि । टेरति विरह छिनुन रह्यो परै सुनि दुख होत करोरनि ॥ रटत पपीहा छिनु नरहाई होत विरहकी रोरनि । चमकत चपल चहूँ दिश दामिनि अमर धनकी घोरनि ॥ वर्पत बूंद वाण से लागत विरहाशरके जोरनि । चंद्र किरन नैनन भरि पीवत नाहिंन तृप्ति चकोरनि ॥ मन्मथ पीर अधिक तनु कंपित ज्यों मृग केहरि कोरनि । सूर दास तोही पर पचिवो मिलि हौ नंद किसोरनि॥३८॥ सारंग ॥ अहोरे विहंगम वनवासी । तेरे बोल तरजनी वाढत श्रवन सुनत नींदउनासी।कहा कहौं कोउ मानत नाही इक चंदन औचंद परासी । सूरदास प्रभु ज्यों न मिलेंगे लेहौं करवत कासी ॥३९॥सारंग श्यामहि सुरति कराइापौठेहोहिं जहां नंद नंदन ऊंचे टेर सुनाइ॥गये ग्रीपम पावस ऋतु आई सब काहू चितचाइ । तुम विनु व्रजवासी ऐसेजी जों करिया विननाइ ॥ तुम्हरो कह्यो मानिहैं मोहन चरण पकरि लैआइ । अवकी बेर सूरके प्रभुको नैनन आनि देखाइ ॥ ४० ॥ मलार ॥ सखीरी चातक मोहिं जिआवत । जैसेहि नि रटति हौं पिय पिय तैसेही वह पुनिर गावत ॥ अतिः सुकंठ दाहु प्रीतमको तारुजीभ मनलावत। आपुन पवित सुधारस सजनी विरहिनि बोलि पिआवत । जो ए पंछी सहाय न होते प्राण बहुत दुख पावत । जीवन सफल सूर ताहीको काज पराए आवत॥४१॥ सारंग ॥ चातक न होइ कोल विरहिनि नारि। अजहूँ पिय पिय रजनि सुरति करि झूठेहि मांगत वारिअति कृपगात देखि सखी याको अहनिशिवाणी रटत पुकारि । देखौ प्रीति वापुरे पशुकी आन जनम मानत नहिं हारि ॥