पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५९

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· सूरसागर-सारावली। .......... सुखवास ॥ १४२ ॥ स्तुतिकरि बहुभांति जगाये तव जागे निजनाथ । आज्ञादई जाय कपिकुलमें । प्रकटो सब सुर साथ ॥१४३ ॥ तव ब्रह्मा सवहिनसों भाष्यो सोई सव सुर कीन्हों । सातों द्वीप जाय कपिकुलमें आय जन्म सुर लीन्हों॥१४॥ अपने अंश आप हरि प्रकटे पुरुपोत्तम निजरूपा नारायण भुवभार हरोहै अति आनन्द स्वरूप ॥१४॥ वासुदेव यों कहत वेदमें हैं पूरण अवतार। शेषसहसमुख रटत निरंतर तऊ न पावतपार ॥ १४६॥ सहसवर्षलों ध्यान कियो शिव रामचरित. सुखसार । अवगाहन करिकै सब देख्यो तऊ न पायो पार ॥ १४७ ॥ वितीसमाधि सती तब पूछयो कहोमर्मगुरुईश । काको ध्यान करत उरअंतर को पूरण जगदीश ॥ १८॥ तव शिव कहेउ राम अरु गोविंद परमइष्ट इक मेरे। सहप वर्ष लौं ध्यान करत हौं राम कृष्ण सुख केरे ॥ १४९ ॥ तामें रामसमाधि करी अब सहसवर्ष लौं वाम । अतिआनन्द मगन मेरो मन अंग अंग पूरण काम।।१५०॥दाया करि भोको यह कहिये अमर होहुँ जेहि भांति । मोहिं नारद मुनि तत्त्व बतायो ताते जिय अकुलाति ॥१५१॥ तव महादेव कृपाकरिकै यह चरितकिया विस्तार । सोब्रह्मांडपुराण व्यासमुनि कियो वदन उच्चार ॥ १५२ ॥ मुनि वाल्मीकि कृपा सातों ऋषि राम मंत्र फल पायो । उलटो नाम जपत अघवीत्यो पुनि उपदेश करायो।।१५३॥रामचरित वर्णनके कारण वाल्मीकि अवतार । तीनों लोक भये परिपूरण रामचरित सुखसार ॥ १५४ ॥ शतकोटी रामायण कीनो तऊ न लीन्हों पार । कह्यो बशिष्ठमुनि रामचन्द्र सो रामायणउच्चार । ॥१६६॥ कागभुशुंड गरुड सों भाष्यो रामचरित अवतारोसकल वेद अरु शास्त्र कह्यो है रामचन्द्र यश सार ॥ १५६॥ कछु संक्षेप सूर अब वर्णत लघुमति दुर्बल वाला यह रसना पावनके कारण मटन भव जंजाल ।। १५७॥ तीनोव्यूह संगलै प्रकटे पुरुषोत्तम श्रीराम । संकषण प्रद्युम्न लक्ष्मण भरतमहासुखधाम॥१५८॥ शत्रुघ्नहि अनिरुध कहियतु है चतुर्वृह निज रूप । रामचन्द्र प्रकटे जब गृहमें हरषे कोशलभूप ॥१५९॥ पुष्य नक्षत्र नौमी जु परम दिन लग्न शुद्ध शुभवार । प्रकटभये द शरथ गृह पूरण चतुर्ग्रह अवतार ।। १६० ।। अति फूले दशरथ मनहीं मन कौशल्या सुख पायो, सौमित्रा कैकयी मन आनंद यह सवहिन सुत जायो! ॥ १६१ ॥ गुरु वशिष्ठ नारदमुनि ज्ञानी जन्मपत्रिका कीनी । रामचन्द्र विख्यात नाम यह सुर मुनि की सुधि लीनी ॥१६२॥ देत दान नृप राज द्विजनको सुरभी हेम अपार । सव सुन्दरि मिलि मंगल गावत कंचन कलश दुवार ॥१६३॥ आये देव और मुनिजन सब दे अशीश सुख भारी । अपने अपने धाम चले सब परम मोद रुचिकारी ॥ १६४ ॥ मनवांछित फल सबहिन पाये भयो सबन आनन्द। बालरूप बके दशरथसुतः । करतकेंलिं स्वच्छन्द ॥ १६५ ॥ घुटुरुन चलत कनक आंगन में कौशल्या छवि देखत । नील नलिन तनु पीत अँगुलिया धनदामिनि द्युति पेखत ॥ १६६॥ कवहुँक माखन रोटी लेके खेल करत पुनि मांगत । मुख चुंबत जननी समझावत आय कंठ पुनि लागत ॥ १६७ ॥ कागभुशुंड दरश को आये पांच वर्षलौं देखे । स्तुति करी आपु वर पायो जन्म सफल कार लेखे ।। १६८ ॥ कृपा कार निज धाम पठायो अपनो रूप दिखाय । वाके आश्रम कोउ वंसतहै माया लगत न। ताय ॥ १६९॥ प्रातकाल उठि जननि जगावत उठो मेरे वारे राम । उठि वैठे दतुवन ले आई करी सुखारी श्याम ॥ १७०॥ चारौ भ्रात मिल करत कलेऊ मधु मेवा पकवान । जल आचमनः जब वह विप्र : फिर कीन्हों स्नान ।। १७१ ॥ करत शृंगार चार भइया मिलि शोभा वरणि न ॥ मुखभाख । चित्र सुभग चौतनिया इन्द्र धनुप छवि छाई ॥ १७२ ॥ अलकावलि मुक्तावलिई ।