पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५९२

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दशमस्कन्ध-१० (१९९) जग देखति हेरि। सूरदास सब नातोब्रजको आए नंद निवेरि ॥ ऋतु वसंत कोकिल कत कूजहि मदन संकली खेरि ॥७१॥ आसावरी ॥ सखीरी विरहा यह विपरीत । विरहिनी वासु क्यों करै पावसकाल प्रतीत ॥ नित नवला नवसत साजिकै अरु वह भावकराखी । ना जानौं नृपति प्राणपति कहां हैं रुचि आंखी ॥ सूरदास गोपालकी सब अवधि गई व्यतीत । बहुरि कब देखिवो मुख तुम्हारो यह नीत ॥ ७२ ॥ विलावल ॥ तौऊ तौ गोपाल आहिँ गोकुल बासी। ऐसी वातै बहुतै कहि कहि लोग करत हैं हाँसी ॥ मथि मथि सिंधु सुरन कर पोपी शंभु भए विषुआसी । इमि हति कंस राज और दयो चाहिलई इक दासी।विसरो सूर विरह दुख अपनो अब चली चाल औरासी । ऐसे विहंगम प्रीति निधि देखि प्रगट नपरखी खासी॥७३॥ सारंग । उन ब्रजदेव नेकु चितु करते । कछु जिए आश रहति विधिवश बहुरहु फिरि २ मिलते ॥ कहा कहिए हरि सब जानत हैं या तनुकी गति ऐसी । सूरदास प्रभुताह सुरुचिं मिलि नातरु हम गरवैसी ॥७॥विलावल ॥ श्यामतौ दीरे मधुवनियां । अपने हाथ पोहि पहिरावत कान्ह कनकके मनियां ॥ बहुरि गोकुल काहेको आवत भावत नवजोवनियां । सूरदास प्रभु वाके वशपरि अवहरि भए चिकनियां॥७॥देखोरी धौं लोग चतुर मधुवनकोोवादत नहीं गोविंद विमोहै गुणजानौ माधौको। जब हरि गमन करौ मधुवनको छांडो हेतु सवनको।सूरदासप्रभु वेगि मिलावो गोविंद प्यारो निज प्राणनिको॥७॥धमार|कहोरी जो कहिवेकी होईप्राणनाथ विरेकी वेदन और नजानै कोई॥ज्योर अधर सुधारस लैलै मगन रही मुख जोई । जो रस शिव सनकादिक दुर्लभ सो रस बैठी खोई ॥ कहा करौं कछु कहत नआवै सुखसपना भयो सोई । हमसों कठिन भए कमलापति काहि सुनावो रोई ॥ विरह व्यथा अंतरकी वेदन सो जाने जेहि होई । सूरदास सुख मूरि मनोहर लैजो गयो मनगोई।।७७॥ सानुत।। विछुरेरी मेरे बालसँघाती । निकास नजात प्राणएपापी फाटतनाहिं पत्रकी छाती ॥ हों अपराधिन दही मथतिही भरियौवन मदमाती । जोहों जानाति हरिको चलिवो लाज छाँड सँगजाती ॥ ढरकत नीर नैनभरि सुंदर कछु नसोहात दिवस अरु राती । सूरदास प्रभु दरशन कारन सब सखिअन मिलि लिखी जो पाती॥७८॥ मलार ।। हरि परदेश बहुत दिन लाए। कारी घटा देखि वादरकी नैननीर भरि आए ॥ वीरवटाऊ पंथी हो तुम कौन देशते आए। इह पाती हमरी लै दीजो जहां साँवरे छाए। दादुर मोर पपीहा बोलत सोवत मदन जगाए । सूर दास गोकुलते विछुरे आपुनभए पराए॥७९॥हमारे हिरदै कुलसे जीत्यौं। फटत नसखी अजहुँ उहि आशा वरप दिवस परिवीत्यौं ॥ हमहूँ समुझि परी नीकेकरि यह आशा तनुरीत्यो । बहुरिन जीवन मरन सों साझो करी मधुपकी प्रीत्यो ॥ अवतौ वात घरी पहरन सखी ज्यों उदवसकी प्रीत्यों। सुरश्याम दासी सुख सोवहु भयो उभयमनचीत्यों॥८॥सारंग।।एकदिवस कुंजन मैं माई। नाना कुसुम लैलै अपने कर दिए मोहिं वह सुरति नजाई ॥ इतनेमें घन गजि वृष्टिकरि तनु भीज्यो मोभई जुडाई । कंपत देखि उठाइ पीतपट लैकरुणामैं कंठ लगाई ॥ कहँ वह प्रीति रीति मोहनकी कहाँ अवधौ एते निठुराई । अव बलवार सूरप्रभु सखीरी मधुवन वासि सब रति विसराई ॥ ८ ॥ कान्हरो ॥ हो जानो मोको सखी माधो हितुहै कियो । अति आदर आतुर अलि ज्यों मिलि मुख मकरंद पियो । वरु वह भली पूतना जाको पय सँग प्राण गयो । मनु मधु अथै निपट सूने तन यह दुख अधिक दयो॥ देखि अचेत अमृत अवलोकनि चले जु सींचि हियो। सूरदास प्रभु वा अधार ते अवलों परत जियो ॥८२॥ सारंग ॥ या गतिकी माई को जानै । पंकज - -