पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५९४

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दशमस्कन्ध-१० (६०१) यह दुख आनि दहै ॥९३॥सारंगामाधो छांडिवे पहिचानिातवते विरह कुटिल या गोकुल कीनो है विजु खानि ॥ तनु गिरि जानि आनि अवनी डर इहि उड भीतरहे । गमन कान्ह क्षण क्षण तु काम शशि किरनि कुदार गहरेणु अंजन जल नैन द्वार कै रह्यो हृदय भरि पूरि । निकसत नाही पापरतन ज्यों गयो श्याम सँग दूरि ।। तुमसों बात और अलि भापे उलटि ध्यान वपुजीत्यो । दै नृप लरत जाइ इंद्रीगत कहो सूरको नीत्यो ॥१४॥नम्॥ मेरे मन इतनी शूलरहीवि वतियां छतियां लिखि राखी जे नंदलाल कही ॥ एक दिवस मेरे गृह आए हौंहीं मथत दही । राति मांगत.मैं मान कियो सखी सो हरि गुसा गही ॥ सोचति अति पछिताति राधिका मुर्छित धरणि ढही । सूरदा स प्रभुके विछुरे ते व्यथा न जात सही।।९५||मलार। हार इते दिन लाए। आवन कहि गए अजहुँ न आए।चलत चितै मुसुकायके मृदु वचन सुनायेतेिई ढंग मोदक भए न धीरन हरि तन छूछे करि छिटकाये।मोहन यदुनाथके गुण जानि नपाए।मनहु सूर घनश्याम सुंदर बहुरिन चरण दिखाए। ॥९६॥ यह दुख कौन सों कहाँ। जोइ बीतात सोइ कहति सयानी नित सब शूल सहाँ । जे सुख श्याम संग सबकीने गहि राखे इहि गात । ते अब भए शीत या तनुको शाखा ज्यों दुम पात ॥ जो हुती निकट मिलनकी आशा सोतो दूरि गई । यथा योग ज्यों होत रोगिया कुपथी करत नई । यह तनु त्यागि मिलन यो पनि है गंगासागर संग । अब सुनं सूर ध्यान ऐसो है श्याम राम इक रंग ॥९७॥ सारंग ॥ हम शरघात ब्रजनाथ सुधानिधि राखे बहुत जतन करि सचि सचि। मन मुख भरि भरि नैन ऐन उरप्रति कमल कोशलौं खचि खचि ॥ सुभग सुमन सब अंग अमृतमय तहां तहां राखति चित रचि रचि ॥ मोहन मदन स्वरूप सुयशरस करत सुगुप्त प्रेमरस पचि पचि । सूरसुदास पीयूष लागि रस पठयो नृपति तेउ गए वचि वचि । अब सोई मधु हरयो सुफलक सुत दुसह दाह जो उठत तन तचि तचि ॥९८॥ जयते नंदलाल चले काहू मुरली न बजाई । उन विना जिय कठिनपीर निकसिह नजाई । वृंदावनमें भूलि काहू सारंगौ न गाई। गोपिन कठिनहिए तरकि हू नजाई । सूरदास प्रभुकी लीला ऊधो कछु पाई ॥१९॥ सारंग॥ माई वैदिना येदेह अछत विधना जो आनरी । श्यामसुंदर रंग रंग युवति वृंद ठानेरी ॥ यद्यपि अक्रूर मूल परमगति पढ़ावैरी प्राणनाथ कमल नैन बाँसुरी बजावैरी।।सोइ कहा कहाँ कहत कठिन कहै कौन मानैरी । सूरसो नंद प्रेम पीर विरही मिले जानेरी ॥२९०० ॥ सवकोउ कहत सयानी बातै । समुझिं नपरत बूझि नहिं आवत कही जात नहिं तातै ॥ पहिले जानि अग्नि चंदन सी सती बहुत उमहै । समाचार ताते औ सीरे आगे जाय लहै ॥ कहत फिरत संग्राम सुगम अति कुसुममाल करवार । सूरदास शिरदेत शूरमा सोइ जाने व्यवहार ॥ १॥ गूनरी ॥ कुंवरिको वैरागी वैराग । पलटति वसन करति निशिचोरी वपु विलसत भई जाग ॥ वेसार वेहदि मृगमंद मथि नख उर धुकधुकी खेद कीनी । चलत चरण चित गयो गलित झिर स्वेद सलिल भैभीनी ।। छूटी भुजवल फूटी वलय कर छटि लरफटी कंचुकी छीनी । मनहुँ प्रेमको परनि परेवा याही से पढिलीनी ॥ अवलोकत इहि भांति रमापति जानौं अहिमणि छीनी । सूरदास प्रभु कही न जाइ कछु हौं जानी मति हीनी ॥२॥ मलार ॥ हरिको मारग दिन प्रति जोवति । चितवति रहति चकोर चंद्र ज्यों सुमिरि सुमिरि गुण रोवति ॥ पतिआं पठवत मसि नहिं खंडित लिखि लिखि मानहु धो वति । भूपण दिननिशिनीद हिरानी एको पलनहि सोवति ॥ सूरदास प्रभु तुम्हरे दरश विनु वृथा जनम सुख खोवति ॥३॥ बिलावल ॥ अंतर्यामी कुँवर कन्हाई । गुरु गृह पढत हुते जहां विद्या -