सूर श्याम बहुरो ब्रज जैहें ऐसे भए अजान ॥३२॥ धनाश्री ॥ ऊधो यह राधासों कहियो । जैसी कृपा श्याम मोहिं कीन्हीं आप करत सोइ रहियो । मोपर रिस पावत वे कारण मैंही तुम्हरी दासी । तुमहीं मनमें गुणिधो देखो विन तप पायो कासी।कहां श्यामकी तुम अर्धगिनि में तुम सरकी नाही सूरज
प्रभु को यह नबूझिए क्यों न वहाँलौं जाहीं ॥३३॥ सारंग ॥ उधो जाइ कहियो राधिकाही तुम इतनी सी वात । आवन दिए कहो काहेको फिरि पाछे पछितात ॥ अब दुसमानि कहाधों करिहों हाथ रहेगी गारी । हमैं तुम्हें अंतरहै तो जानतहें बनवारी।।एतो मधुप सवेरस भोगी जहीं नहीं रसनीको
जो रस खाइ स्वाद करि छाँडै सोरस लागत फीको । एक कुँवर हरि हरचो हमारो जगतमांझ यशलीनो । ताको कहा निहोरो हमको मैत्रिभंग करि दीनो ॥ तुम सब नारि गँवारि अहीरी कहा चातुरी जानों । राखिनसकी आपुवशकै तव अब काहे दुसमानों । सूरदास प्रभुकीए बातें ब्रह्म लखे नाहि पारे । जाके चरण पाइकै कमला गति आपनी विसार ॥३४॥ केदारो ॥ सुनियत ऊधो लये
संदेशो तुम गोकुलको जात । पाछे करि गोपिनसों कहियो एक हमारी बात ॥ मात पिताको नेह
समुझिके श्याम मधुपुरी आए । नाहिन कान्ह तुम्हारे प्रीतम ना यशुमतिके जाए ॥ देखोबूझि आपने जियमें तुम माधो कोने सुखदीने । ए बालक तुम मत्त ग्वालिनी सबै मुंड करि लीनतनक दही माखनके कारण यशुदा बास दिसावे । तुम हँसि सब बांधनको दोरी काहू दया न आवे ॥ जो वृपभानुसुता उनकीनी सो सब तुम जिय जानी। ताही लाज तज्यो ब्रजमोहन अब काहे दुख मानो ॥ सूरदास प्रभु मुनि सुनि पाते रहे श्याम शिरनाए । इत कुविना उत प्रेम गोपिको कहत न कछु पनि भाए ॥३५॥ निहागरो ॥ ऊधो जात जहि सुनदेिवकी वसुदेव सुनिक हृदय हेत गुने ॥ आपसे पाती लिखी कहि धन्य यशुमति नंद । सुत हमारो पालि पठयो अति दियो आनंद ॥ आइक मिलि जात कबहुँ न श्याम अरु बलराम । इहो कहति पठाइ देहं तवहि तनु विनवामाबाल मुस सब तुमाह लुट्यों मोहिं मिले कुमार । सूर यह उपकार तुमते कहत वारंवार ॥३६॥ विलागल ॥ तब उधो हरि निकट बुलायो । लिखि पाती दोउ हाथ दई तेहि ए मुख वचन सुनायो ॥ ब्रजवासी जावत नारि नर जल थल द्रुम वन पात । जो जेहिविधि तासो तसेही मिलि अरस परस कुश लात । जो सुख श्याम तुमहिते पावत सो त्रिभुवन कहुँ नाहिं । सूरदास प्रभुदै सहि आपनी समुझत हो केनाहिं ॥ ३७ ॥ सारंग ॥ पहिले प्रणाम नंदराइसों । ता पीछे मेरो पालागन कहियो यशुमति माइसों ॥ वार एक तुम बरसानेलो जाइ सबै सुधि लीजो । कहि वृपभानु महरसों मेरो समाचार
सब दीजा ॥ श्रीदामा आदि सकल ग्यालनको मेरोहित भेटियो । सुख संदेश सुनाइ सवनको दिन दिनको दुख मेटियो । मित्र एक मन वसत हमारे ताहि मिले सुखपाइहो । करि करि समाधान नीकी विधि मोहिको माथो नाइहो ॥ डरियहु जिनि तुम सपन कुंजमें हैं तहँ के तरु भारी । वृंदावन मति रहति निरंतर कबहुँ न होत निनारी ।। ऊधो सों समुझाइ प्रगट करि अपने मनकी
वीती।सूरदास स्वामी सो छल सों कही सकल व्रज प्रीती ॥३८॥ कही हरि ऊधो सों बज प्रीति वोले चले योग गोपिन को तहां करन विपरीतिातुरत अंक भरि स्थहि चढायो विनय कयो कार ताहि ॥ विरहा जाल मेटि गोपिनको आवहु काज निवाहिलि रज चरण शीश वंदन करिव्रज हों दिन बैक । सूरज प्रभु श्रीमुख कहि पठवत तुम विनु रहों न नेक ॥३९॥ गौरी॥ गहर जान लावहु गोकुल जाइ । तुमहि विना व्याकुल हम है हैं यदुपत्ति करी चतुराइ ॥ अपनोई स्थ तुरत मँगायो दियो तुरत परनाइ । अपने अंग आभूपण कार कार आपुनही पहिराइ । अपनो मुकुट पीतांवर अपनो देत ।
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दशमस्कन्ध-१०
