पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५९९

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% 3D % 3D (५०६). ___.. .: सरसागर। . . .. ... सबै सुख पाये । सूरश्याम तदपि उपंगसुत भृगुपद एक बचाये ॥४०॥ विलावल ।। ऊधो चले श्याम ! आयसु सुनि ब्रज नारिनको योग कहो। हरिके मन यह प्रेम लहैगो.वहतो जिय अभिमान गह्यो। आतुर चल्यो हर्ष मन कीन्हे कृष्ण महंत करि पठे दियो । स्यंदन उहै श्याम सब भूषण जानि परै नंदसुवन वियो। युवती कहा ज्ञान समुसँगी गर्ग वचन मन कहत चल्यो । सूर ज्ञानको मान वढाये मधुवनके मारगहि मिल्यो॥४॥विलावलाजबाहिं चले ऊधो मधुवनते गोपिन मनाहिं जनाई गई। वार वार भौंरा लगै कानन कछु दुख कछु हिय हर्ष भई।जहँ तहूँ काग उड़ावन लागी हार आवत. उडि जाहि नहीं समाचार कहि जबाह सुनावत उड़ि बैठत सुनि अनत कहीं।सखी परस्पर यह कह वातै आजु श्यामकै आवत हैं।किधौं सूर कोई बज पठयो आजु खवरिकै पावत हैं।४२॥आज कोउ नीकी बात सुनावै । कै मधुवनते नंद लाडिले कै व दूत कोउ आवै । भौंरा इक चहुँ दिशते उडि उडि कान लाग कछु गावोउत्तम भाषा ऊंचे चढि चढि अंग अंग सगुनावै ॥ सूरदास कोऊ. ब्रज ऐ सो जो ब्रजनाथ मिलावै॥४३॥धनाश्रीतू तो उडहि नहीं रे कागाजो गोपाल गोकुलको आवे तो है है बडि भाग ॥ दधि ओदन भरि दोनो देहाँ अरु अंचलकी पाग । मिलिहौं हृदय सिराइ श्रवणसुनि मेटि विरहके दाग ॥ जैसे मात पिता नहिं जानत अंतरको अनुराग । सूरदास प्रभु करें कृपा तब जवते देह सुहाग॥४४॥कल्याण। मथुराते निकसि परे गैल मांझ आइ उहै मुकुट पीतांबर श्याम रूप काछे । भृगु पद एक वंचित उर.और अंग आछे ॥ ज्ञानको अभिमान किए मोको हार पठयो। मेरोई भजन थापि माया सुख झवयो। मधुवनते चल्यो तबहिं गोकुल नियरान्यो। देखत ब्रजलो गश्याम आयो अनुमान्यो।राधा सों कहति नारि काग सगुन टेरो ॥ मिलि हैं तोहिं श्याम आज भयो वचन मेरो ॥ वैसोइ रथ देखति सब कहति हरष वानी । सूरज प्रससे लागत तरुनी मुसकानी ॥ ४५ ॥ अध्याय ॥४७॥ भँवरगीत ॥ राग बिलावल ॥ राधेहि सखी बतावतरी। वैसोई रथ लखौं सेतों को उतहीते आवतरी॥चढिआयो अक्रूर जाहिपर स्पंदन ब्रज तन धावतरी। वैसोइ ध्वजा पताका वैसोइ घर घर सवन सुनावतरी॥कोउ कहै श्याम कहति को ऐहै ब्रजतरुनी हरषा वतरी । सूरश्याम जेहि मग पगधारे तेहि मारग दरशावतरी॥४६॥सारंगा है कोउ वैसीही अनुहारि मधुवन तनते आवत सखोरी देखहु नैन निहारिः॥ माथे मोर मुकुट कटि किंकिणि पीतवसन रुचि चारािसूरदास प्रभु विन सब ऐसी जैसे मीन विन वारि॥४७॥कल्याण. वैसोइ रथ वैसोइ कोउ आवत उतहति।झुरि झुरि सब मरति विरह गोपी जनकीतादेखोरी मुकुट झलक कुंडलकी ओभा। वैसोई पटपीत अंग सुंदर अतिसोभा॥ आएरी नंदसुवन राधा हरपानी। सूर मरत मीन तुरत मिले अगम पानी ॥४८॥ना देखत हरषभई ब्रजनारी। निहचै आए वनवारीजो जैसे सो तैसे धाई। घर घर लोगन सुने कन्हाई॥स्थहीतन सब निरखनलागे । सपनको सुख लूटत आगे.॥ कृपाकरी आए गोपाल । गोपिन जानी विरह विहाल ॥ ज्योंही ज्योरथ आतुर आवै। त्योंही.त्योंही पट फहरावै । सूर भई सुख व्याकुल नारी प्रेमविवस आनंद उर भारी॥४९॥विलावलाघर घर इहै शब्द परयो।सुनत यशुमति धाइ निकसी हर्षितहि यो भरयो।नंद हर्षित चले आगे संखा हर्षत अंगाझुंड झुंडन नारि हर्षत चली उदधि तरंगाागाइ.हत पय श्रवत थन हुँ करत गउ बाल। उमॅगि अंगन मात कोऊ विरध तरुन अरु बालः॥ कोउ कहत बलराम नाही. श्याम रथपर एक । कोउ कहति प्रभु सूर दोऊ रचित बात अनेक ॥५०॥विलावल। सुने ब्रजलोग आवत श्यामाजहां तहांते सबै धाई | सुनत दुर्लभ नाम । मानो मृगी बन जरति व्याकुल तुरत वरष्योनीर ॥ वचन गदगद प्रेम व्याकुल...