पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६०

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सूरसागर-सारावली। bad- गूंथी डोर सुरंग विराजै । मनहुँ सुरसरी धार सरस्वति यमुना मध्य विराजै ॥ १७३ ॥ तिलक भाल पर परम मनोहर गोरोचन को दीनो । मानो तीन लोक की शोभा अधिक उदय सो कीनो ॥ १७४ ॥ खंजन नैन वीच नासापुट राजत यह अनुहार । खंजन युग मनो लरत लराई कीर वुझावत रार ॥ १७५ ॥ नासाके बेसर में मोती वरण विराजत चार । मनो जीव शनि शुक्र एक वाढे रविके द्वार ॥ १७६॥ कुंडल ललित कपोल विराजत झलकत आभागड । इन्दी वरपर मनो देखियत रविकी किरण प्रचंड ।। १७७॥ अरुण. अधर दमकत दशनावलि चारु चिवुक मुसक्यान । अति अनुराग सुधाकर सींचत दाडिमवीज समान ॥ १७८ ॥ कंठसिरी विच पदिक विराजत बहुमणि मुक्ताहार । दहिनावर्त देत ध्रुव तारे सकल नखत बहुवार ॥ १७९ ॥ रत्न जडित कंकण वाजूवंद नगन मुद्रिका सोहै । डार डार मनु मदन विटपतरु विकच देखि मन मोहै ॥ १८० ॥ कटिकिकिणि रुनु झुनु सुनि तनकी हंस करत किलकारी । नूपुरध्वनि पग लालि पन्हैया उपमा कौन विचारी ।। १८१ ॥ भूपण बसन आदि सब रचि रचि माता लाड लडावै । रामचन्द्र की देख माधुरी दर्पण देख दिखावै ॥ १८२ ।। निज प्रतिविव विलोक मुकुर में हँसत राम सुख रास । तैसेइ लक्ष्मण भरत शत्रुहन खेलत डोलत पास ॥ १८३ ॥ दशरथ राय न्हाय भोजन को वैठे अपने धाम । लावो वांगे राम लक्ष्मण को सुनि आये सुखधाम ।। १८४॥ वैठे सँग बाबा के चारो भैया जैवन लागे । दशरथ राय आयु जैवतहैं अति आनंद अनुरागे ॥ १८५ ॥ लघु लघु ग्रास राम मुख मेलत आपु पिता मुख मेलत । बालकेलि को विशद परमसुख सुखसमुद्र नृप झेलत ॥ १८६॥ दाल भात घृत कढ़ी सलोनी अरु नाना पकवान । आरोगत नृप चारिपुत्र मिलि अति आनन्दनिधान ॥ १८७॥ अचवनकर पुनि जलअचवायो जवनृप बीरा लीनो। राम लपण अरु भरत शत्रुहन सवहिन अचवनकीनो॥ १८८ ॥ वीराखायचले खेलनको मिलिकै चारोवीर । सखासंग सव मिलेवरावर आये सरयू तीर ॥ १८९ ॥ तीर चलावत शिष्यसिखावतधरनिशानदेखरावत । कवहुँक सधे अश्व चढि आपुन नानाभांति नचावत ।। १९० ॥ कबहुँक चारभ्रात मिलि अगिआ जात परम सुख पावत । हरिनआदि बहुजंतु किये वध निज सुरलोक पठावत ॥ १९१ ॥ यहि विधि वन उपवन बहुक्रीडा करीराम सुखदाई। वाल्मीकि मुनि कही कृपाकर कछुयक सूर जो गाई ॥ १९२॥ भई सांझ जननी टेरतहै कहां गए चाराभाई । भूख लगी है लालन को लावो वेगि बुलाई ॥ १९३॥ इतने मांझ चार भैया मिलि आये अपने धाम । मुखचुंबत आरतीउतारत कौशल्या अभिराम ।। १९४ ॥ सौमित्रा कैकाये सुख पावत बहु विधि लाड लडावत । मधु मेवा पकवान मिठाई अपने हाथ जेवावत ॥ १९५ ॥ चारों भ्रातन श्रमित जानिकै जननीतब पौाये। चापत चरण जननि अप अपनी कछुक मधुर स्वर गाये ॥ १९६ ॥ आई नींद राम सुख पायो दिनको श्रम विसरायो ।.जागे भोर दौरि जननी ने अपने कंठलगायो ।। १९७ ।। विश्वामित्र बडे मुनि कहियत यज्ञकरत निजधाम । मारिच और सुबाहु महासुर विघ्न करत दिनयाम ॥ १९८॥ परब्रह्म अवतार जानिक आये नृपके पास । दशरथ राय बहुत पूजा विधि किये प्रसन्न हुलास ॥ ॥१९९ ॥ भोजन कर जवहीं जुबिराजे तब भाष्यो मुनिराय । यज्ञ सकल कीजै मेरो अब दीजै राम पठाय ॥२००॥ तब नृप कह्यो राम हैं वालक मोको आज्ञा कीजै । तब द्विज को राम रपमेश्वर वचन मान यह लीजै ॥२०१॥ गुरु वशिष्ठ सव विधि समझाये राम लपण सँग दीन्हे । - -