पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६०२

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% 3E - दशमस्कन्ध-१० दीनो लोग।६९॥ अथ उद्धव वचन।।सारंग ॥ गोपी सुनहु हरि कुशलाताकस नृपको मारि छोरयो आप नोपितु मात ॥ बहुत विधि व्यवहार करि दियो उग्रसेनहि राज । नगर लोग सुखी वसतहैं भए सुरनके काज ॥ वे इह पाती मुझे लिखि मुख कह्यो कछू संदेश । सूर निर्गुण ब्रह्म परिकै तनहु सकल अंदेश ॥७०॥ केदारो ॥ गोपी सुनहु हरि संदेशागए संग अक्रूर मधुवन हत्यो कंस नरेशरिज क मारयो वसन पहिरे धनुष तोरे जाइ । कुवलया चाणूर मुष्टिक दई धरणि गिराइ ॥ मात पितुके वंदि छोरे वासुदेव कुमार । राज्य दीन्हों उग्रसेनहि चमर निज करदार ॥ कह्यो तुमको ब्रह्म ध्यावो छांडि विपै विकार । सूर पाती दई लिखि माहिं पढौ गोपकुमार॥७१॥अथ पाती वचन अवस्था।।सारंग। पाती मधुवनं होते आई । सुंदर श्याम कान्ह लिखि पठई आइ सुनोरी माई ॥ अपने अपने गृह ते दौरी ले पाती उरलाई । नैनन निरखि निमेष न खंडित प्रेम व्यथा न बुझाई ॥ कहा करौं सूनो यह गोकुल हरि विन कछु न सोहाई । सूरदास प्रभु कौन चूकते श्याम सुरति बिसराई ॥ ७२ ॥ निरखत अंक श्याम सुंदरके वार वार लावत लै छातीलोचन जल कागज मसि मिलि करि लै गई श्याम श्याम जूकी पाती ॥ गोकुल वसत नंदनंदनके कबहुँ क्यारि न लागी ताती । अरु हम उती कहा कहैं उधो जब मुनि वेणु नाद सँग जाती ॥ प्रभु कै लाड वदति नहिं काहू निशि दिन रसिक रास रस राती । प्राणनाथ तुम कबहुँ मिलहुगे सूरदास प्रभु वाल संघाती ॥७३॥ पातीमधुवनते आई । ऊधो हरिके परम सनेही ताके हाथ पठाई ॥ कोउ पूछत फिरि फिरि ऊधोको आपुन लिखी कन्हाई । बहुरो दुई फेरि ऊधोको तब उन वाचि सुनाई। मनमें ध्यान हमारो राखो सूरदास सुख दाई ॥७४|मारू॥ लिखि आई ब्रजनाथकी छापाऊधो बाँधे फिरत शीश पर देखे आवै तापा।उलटी रीति नंदनंदनकी घरि घरि भयो संताप । कहियो जाइ योग आराधैं अविगत अकथ अमाप । हरि आगे कुविजाआधिकारिनि को जीवै इहि दाप । सूर सँदेश सुनावन लागे कहौं कौन यह पाप ॥७॥मलार।। कोउ ब्रज वाँचत नाहिंन पाती। कत लिखि लिखि पठवत नंदनंदन कठिन विरहकी कांतीनैन सजल कागज अति कोमल कर अँगुरी अतिताती। परसै जरै विलोके भीजै दुहूँ भाँति दुख छाती ॥ क्यों ए वचत सुअंक सूर सुनि विरह मदन शरघाती । मुख मृदु वचन विना सींचे अव जिवहि प्रेम रस माती॥काहेको लिाख पठवत कागरामदन गोपाल प्रगट दरशन विनु क्यों राखहि मन नागर ॥ उधो योग कहा लै कीवो विनु जल सूखो सागर । कहिधौं मधुप संदेश सुचितदै मधुवन श्याम उजागरसूरश्याम विनु क्यों मन राखौं तन योवनके आगर।।७६|| ॥ धनाश्री ॥ उधो कहा करलै पाती । जवनहिं देख्यो गुपाल लालको विरह जरावत छाती ॥ जान तिहौं तुम मानति नाहीं तुमहूँ श्याम सँघाती निमिप निमिप मोविसरत नाहीं शरद सुहाई राती ॥ यह पाती लैजाहु मधुपुरी जहां वसैं श्याम सुजाती । मन जु हमारे उहाँलैगए काम कठिन शरघाती ।। सूरदास प्रभु कहा चहतहै कोटिक बात सुहाती। एकवेर मुख बहुरि दिखा बहु हैं चरण रजराती ॥ ७७॥ मलार॥ ॥ सँदेशन मधुवन कूपभरे । अपने तौ पठवत नंद नंदन हमरे फिरि नफिरे ॥ जेइ जेइ पथिक हुते ब्रजपुरके बहुरि नशोधकरे । कै वह श्याम सिखाय प्रबोधे के वह वीचगरे । कागजगरे मेघ मसि खूटी शर दौलागि जरे। सेवक सूर लिखते आधो पलक कपाट अरे।।७८॥ मलार ॥ आए नँदनंदनके नैवागोकुल मांझ योग विस्तारयो भली तुम्हारी जेव ॥ जब वृंदावन रास रच्यो हरि तबहिं कहा तुम हेव । अब यह ज्ञान सिखावन आए । | भस्म-अधारी सेव।। अवलनको लै सो व्रत ठान्यो जो योगनिको योग । सूरदास ए सुनत नजीवहि: an-