पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६०३

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(६१०) ... . सुरसागर। आतुर विरह वियोग।।७९॥सारंगायहि अंतर मधुकर इक आयो।निज स्वभाव अनुसार निकट होई सुंदर शब्द सुनायो। पूंछन लागी ताहि गोपिका 'कुविजा तोहि पठायो । कीधौं सूरश्याम सुंदरको हमैं संदेशोल्यायो।।८०॥ मलार ॥मधुकर कहा यहां निर्गुणगावहि । एप्रिय कथा नगरनारि नसों कहहि जहां कछु पावहि ॥ जिनि परसहि अब चरन हमारे विरहताप उपजावहि । सुंदर मधु आनन अनुरागी नैनन आनि पिलावहि।।जानति सर्म नंद नंदनको और प्रसंग चलावहिहम नाहिंन कमलासी भोरी करि चातुरी मनावहिं ॥ अति विचित्र लरिकाकी नाई गुरदेखाइ बौरावहि । ज्यों अलि कि तव सुमन रसलै तजि जाइ बहुरि नहिं आवहि।।नागर रति पति सूरदास प्रभु किहि विधि आनि मिलावहि ८१विलावलमधुप तुम कहो कहांते आएहो।जानतिहौं अनुमान आपने तुम यदुनाथ पठायेहौविसही वरन वसन तनु वैसे वै भूषण सजिलाएहो।लै सरवसु सँग श्याम सिंधारे अब कापर पहिराएहो ॥ अहो मधुप एकै मन सबको सुतौ उहां लै छाएहो । अब यह कौन सयान बहुरि ब्रज जाकारण उठि आएहो ॥मधुवनकी मानिनी मनोहर तहीं जाहु जहाँ भाएहो । सूर जहां लौं श्याम गातही जानि भले करि पायेहो।।८२॥ गौरी ॥ मधुकर जो हरि कहो सो कहिए। तब हम अब इन हीकी दासी मौन गहे क्यों रहिए ॥ जो तुम योग सिखावन आए निर्गुण क्यों करि गहिए । जो कछु लिखो सोइ माथेपर आनि परे सब सहिए ॥ सुंदर रूप लाल गिरिधरको विनु देखे क्यों लहिए। सूरदास प्रभु समुझी एकै रस अब कैसे निरवहिए ॥८३॥ ऊधो वचन॥धनाश्री॥ सुनहु गोपी हरिको संदेश । करि समाधि अंतर्गति ध्यावहु यह उनको उपदेश ॥ वै अविगति अविनाशी पूरण सब घट रह्यो समाइ । निर्गुण ज्ञान विनु मुक्ति नहींहै वेद पुराणन गाइ॥ सगुण रूप ताज निर्गुण ध्यावो इक चित इक मनलाइ । यह उपाव करि विरह तरो तुम मिलें ब्रह्म तब आइ॥ दुसह संदेश सुनत माधोको गोपी जन विलखानी । सूर विरहकी कौन चलावै बूडत मन विन पानी८४ ॥ गोपीवचन ॥ मलार ॥ मधुकर हमही क्यों समुझावत । वारंवार ज्ञान गीता ब्रज अवलनि आगे गावतानंदनंदन विनु कपट कथाए कत कहि रुचि उपजावत । मृक चंदन जो अंग क्षुधारत कहि कैसे सुखपावत ॥ देखि विचारतही जिय अपने नागरहो जु कहावत । सव सुमनन पर फिरी निरख कार काहेको कमल बँधावत ॥ चरण कमल कर नयन कमल वर इहै कमल वन. भावतासूरदास मनु अलि अनुरागी केहि विध हो वहरावत॥८॥मलारगारहुरे मधुकर मधु मतवारे कौन काज या निर्गुण सों चिरजीवहु कान्ह हमारे॥ लोटत पीत पराग कीच में नीचन अंग सम्हारे । वारंवार सरक मदिराकी अपसर रटत उघारे ॥दुम वेली हमहूं जानतहो जिनकेहो अलि प्यारे। एक बास ले के विरमावत जेते आवत कारे ॥ सुंदर वदन कमलदल लोचन यशु मति नंद दुलारे।तन मन सूर अर्पि रही श्यामहि कापै लेहि उधारेसामधुकर कौन देशते आए। अजवाते अक्रूर गए लै मोहन ताते भए पराए । जानी सखा श्याम सुंदरके अवधि बांधन उठि धाए । अंग विभाग नंद नंदनके यहि स्वामितहै पाए ॥ आसन ध्यान वाइ आराधन अलिमन चित तुम ताए । आति विचित्र सुबुद्धि सुलक्षण गुंजयोग मतिगाए ॥ मुद्रा भस्म विषान त्वचा मृग ब्रज युवतिन मनभाए। अतसी कुसुम वरन मुरली मुख सूरज प्रभु किन ल्याए।८७मधुकर.. काके मीत भए । त्यागे फिरत सकल कुसुमावलि मालति भोरै लए ॥ छिनुके बिछुरे कमल रतिमानी केतकि कत विधए । छांडि देहु नेहु नहिं जान्यो: लै गुण प्रगट नए ॥ नूतन कदम तमाल वकुलं वट परसत जनम गए । भुज भार मिलनि. उड़त उदासढे गत स्वारथः ॥