पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६०६

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दशमस्कन्ध-१० कहतही संत हैं गोविंद कहियत है कुविजा उन पेरी। दोऊ मिले तैसेई तैसे वह अहीर वै कंसकी चेरी ।। तुम सारिखे वसिष्ठ पठाए कहिए कहा बुद्धि उनकेरी । सूरइयाम वह सुधि विसराई गा वत हैं ग्वालन सँग हेरी ॥८॥ सारंग ॥ समुझि नपरत तुम्हारी ऊधो । ज्यों त्रिदोष उपजे जक ला गत वोलति वचन न सूधो ॥ आपुनको उपचार करौ कछु तव औरन शिष देहु । बडो रोग उप ज्यो है तुमको भौन सवारे लेहु ॥ वहां भेपज नाना विधिको अरु मधुरिपुसे हैं वैद । हम कातर डरपत अपने शिर यह कलंक है कैद । सांची वात छाँडिकत झूठी कहौ कौन विधि सुनही । सूर दास मुकुताहल भोगी हंस ज्वारिको चुनही ॥९॥ सोरठ ॥ हम अलि गोकुल नाथ अराध्यो । मन वच क्रम हरिसों धरि पतिव्रत प्रेम योग तप साध्यो ॥मात पिता हित प्रीति निगम पंथ तजि दुख सुख श्रमनाख्यो । मानापमान परम परितोपन सुस्थल थिति मन राख्यो ॥ सकु चासन कुल शील करपि करि जगत वंद्य कर वंदन । मौन पवाद पवन आरोधन हित क्रम काम निकंदन ॥ गुरुजन कानि अग्नि चहुँ दिशिनभ तरनि ताप बिनु देखे । पिवत धूम उपहास जहां तहँ अपयश श्रवण अलेपे ॥ सहज समाधि विसारि वपुकरी निरखिनिमेप नलागत । परमज्योति प्रति अंग माधुरी धरत इहै निशिजागत ॥ त्रिकुटी संग भ्रूभंग तराटक नैन नैन लगि लागै। हँसनि प्रकाश सुमुख कुंडल मिलि चंद्र सूर अनुराग।मुरली अधर श्रवणध्वनि सो सुनि शब्द नहद करि कानै । वरपत रसरुचि वचन संग सुख पद आनंद समान ॥ मंत्र दियो मनजात भजन लगि ज्ञान ध्यान हरिहीको।सूर कहौ गुरु कौन करै अलि कौन सुनै मत फीको१० | ॥ धनाश्री ॥ ऊधो हम आजु भई वडभागी। जिन अँखियन तुम श्याम विलोके ते अँखिया हम लागी।। जैसे सुमन वास लै आवत पवन मधुप अनुरागी। अति आनंद होतहै तैसे अंग अंग सुखरागी । ज्योंदर्पणमें दरशन देखत दृष्टि परम रुचि लागी ॥ तैसे सूर मिले हरि हमको विरह व्यथा तनु त्यागी॥११॥सारंगविलग जिनि मानौ हमारी वाताडरपत वचन कठोर कहत मति विनु पानी उड़िजात ॥ जोकोउ कहै जरै कछु अपने फिार पाछे पछितात । जो प्रसाद तुम पादत ऊधो कृष्णनामलै खातामन जोतिहारो हरि चरणन तर चलत रहत दिनप्राता सूरश्यामते योग अधिक है कासों कहि आवै यह बात॥१२॥सारंगालिहौं कैसे कार कहौं हरिके रूपके रसहिाअपने तनमें भेद बहुत विधि रसना नजाने इन नैनके दसहि । वार वार पछताति इहै कहि कहाक जो विधि नवसहि॥विनुवाणी ए उमॅगि सजलहोइ सुमिरि सुमिरि वा सर्गुणयशहिाजे देखत ते वचन रहितहैं जिनहि वचन दरशन देसहि।सूर सकल अंगनकी इहगात क्यों समुझावै छपद पसहि ॥१३॥सारंग। सूको जेहि नाहिन सचुपायो बल गोपालके राज । ऊधो इहै संपदा हरिकी आवै सबकेकाज ॥ ! धनुप तोरि गजमारि मल्ल मथि किए निडर यदुवंश । इन औरन अमरन सुख दीनो करपि केश शिरकंस ॥ कुविजहि रूपदियो यदुनंदन मालीको हित काम । उग्रसेन वसुदेव देवकी आने अपने धाम ॥ दीनदयालु दयानिधि मोहन है हमरे इह आस । सुरश्याम हरिहैं जुकृपाकरि इन नैननकी प्यास॥१४॥धनाश्री मधुकर कहिए काहि सुनाउ । हरि विछुरत हम किते सहेहैं जिते विरहके घाउ॥ वरु माधो मधुवनही रहते कत यशोदाके आए । कत प्रभु गोप वेषवज धरिकै कत ए सुख उप जाए ॥ कत गिरिधरयो इंद्र मद मेट्यो कत वन रास बनाए । अब कहा निठुर भए अवलनिको. लिखि लिखि योग पठाए । तुम परमप्रवीन सबै जानतहो ताते इह कहि आई ॥ अपनीको चाले सुनि सूरज पिता जननि विसराई ॥१६॥उद्धव वचन ॥ धनाश्री। जानि करि बावरी जिनि होहु ! तत्त्व -