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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६०७

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सूरसागर।


भजै ऐसी जैहौ ज्यों पारस परसे लोहुँ । मेरो वचन सत्य करि मानहु छांडो सवको मोहु । जो लगि सब पानी कूचुपरी तौलगि स्तुति द्रोह ॥ अरे मधुप बातें ए ऐसी क्यों कहि आवत तोहि । सूर सुवस्तुहि छांडि अभागे हमाहिं बतावत खोहि ॥१६॥ गोपी वचन ॥ सारंग ॥ कहिवे जीय न कछु शक राखो । लावा मेलि दए हैं तुमको बकत रहो दिन आखो। जाकी बात कहो तुम हमसों सोधो कहौ को कांधीतिरो कहो सो पवन भूस भयो वहो जात ज्यों आंधी॥ कत श्रम करत सुनतको इहां है होत जो वनको रोयो । सूर इते पर समझत नाही निपट दई को खोयो ॥ १७॥ सारंग ॥ मधुकर भली सुमति मति खोई । हांसी होन लगी है ब्रजमें योगहि राखहु गोई ॥ आतम ब्रह्म लखावत डोलत घट घट व्यापक जोई । चापे काख फिरत निर्गुण गुण इहां गाहक नहिं कोई ॥ प्रेम कथा सोई पै जानै जामें वीती होई । अति रस एतो कहा कोइ जान बूझि देखावै ओई । बडो दूत तू बडी उमरको बड़िए बुद्धि बडोई।सूरदास पूरो दै घटपद कहत फिरतहो सोई ॥१८॥ धनाश्री ॥ मधुपकहि जानत नाहिंन बातापूंकि पूंकि हियरो सुलगावत उठि किन इहांते जाताजिहि उर वसत यशोदा नंदन तेहि निर्गुण क्यों समाताकत डोलत भटकत पुहुपनको पान करत किनपात ॥ यद्य पि बहु वेली वन विहरत वसत जाइ जलजात।सूरदास अब मिलवन आए मौन किए कुशलात ॥१९॥ मधुकर छांड अटपटी बातें । फिीर फिरि बार बार सोइ सिखवत हम दुख पावत जाते ॥ हम दिन देत अशीश प्रात उठि वार खसोमत न्हातै । तुम निारी दिन उर अंतर सोचत ब्रज युवति नकी घात ॥ पुनि पुनि तुमहिं कहत कत आवै कछुक सकुचहै नातै । सूरदास श्याम रंग राचे फिरि न चढै रंग रातै ॥२०॥ मलारा ॥ क्यों मन मानत है इन बातन । पाये जानि सकल सुनि मधुकरजे गुण सांवरे गातन ॥ प्रथम प्रेम निशिहू नतजत अब सकुचतहैं जल जातनि । निरस जानि-निकट नहिं आवत देखि पुराने पातनि ॥ सुनियत कथा कान कोकिलकी कपट रंगकी रातनि । निशि दिन श्रम सेवा कराइ उठि अंत मिले पित मातनि ॥ तब ब्रज वसत वेणु रख ध्वनि करि वन बोली अधरातनि । अति रति लोभ तजत नहि इक क्षण पढ़ सकत नहिं प्रातनि ॥ वालि जीति जिन बलि वंधन किए लुब्धक कैसी हातनिाको पतियाइ सुधौ कहि सूरज संकर्षणके भ्रातनि ॥ ॥२१॥ सारंग ॥ उलटी रीति तिहारी ऊधो सुनै सु ऐसी कोहै । अल्प वयस अबला अहीर शठ तिनहिं योग कत सोहै ॥ कचखुविआँधरि काजर कानी नकटी पहिरै वेसरि । मुडली पटियां पारि सँवारै कोठी लावै केसरि ॥ वहिरी पतिसों बातें करै तो तैसोई उत्तर पावै । सोगति होइ सबै ताकी जो ग्वारिनि योग सिखावै ॥ सिखई कहत श्यामकी बतियां तुमको नाही दोषु । राजकाज तुमते नसरैगो काया अपनी पोषु ॥ जाते भूलि सवै मारगमें इहां आनि कहा कहते। भली भई सुधि रही सूर तो मोह धारमें वहते ॥२२॥॥सारंग ॥ राखो सब इह योग अटपटो ऊधो पाँइ परौं । कहाँ रस रीति कहां तनु शोधन सुनि सुनि लाज मरों ॥ चंदन छांडि विभूति वतावत यह दुख क्यों न जरौं । नासा कर गहि योग सिखावत वेसरि कहां धरौं । सर्गुण रूप रहत उर अंतर निर्गुण कहा करौं । निशि दिन रटना रटत श्याम गुण काकरि योग मरौं । मुद्रा न्यास अंग अंग भूषण पतिव्रतते नटरों । सूरदास याही व्रत मेरे हरि मिलि नहिं विछु ॥२३॥ सारंग ॥ मधुकर हम अयान मति भोरी । जानें तेइ योगकी बातें जेहैं नवल किसोरी ॥ कंचनको मृग कवने देख्यो किन बांध्यो गहि डोरी । बिनही भीत चित्र किनकीनो किन नभहठ करिया ल्यो झोरी ॥ कहिधौं मधुप वारि माथि माखन काढि जो भरो कमोरी । कहो कौन कढा जाई न