पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६१

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(८) सूरसागर-सारावली। . . . . . . . . : मारग में अहल्या उद्धारी नावक निज पदछीने ॥२०२॥ विश्वामित्र सिखाई बहुविधि विद्या । धनुष प्रकार । मारग में ताडकाजु आई धाई वदन पसार ॥२०३॥ छिनमें राम तुरत सो मारी. नेक न लागीबार । दीन्हीं मुक्ति जानि निज' महिमा आये ऋषिके द्वार ॥२०४॥ कीन्हें विष यज्ञ परिपूरण असुर विघ्नको आये। अग्निवाण कर दहन कियोहै एक समुद्र पठाये ॥२०५॥.. जनक विदेह कियो जु स्वयम्वर बहु नृप विप्र बुलाये । तोरन धनुपदेव त्र्यम्बकको काहू यतन. न पाये ॥२०६॥ विश्वामित्र मुनि वेग बुलाये सकल शिष्यलैसंग । राम लपण सँगलिये आपने चले. प्रेमरसरंग ॥२०७॥ जहँ तहँ उझकि झरोखा झांकत जनक नगरकी नार । चितवनि कृपाराम अवलोकत दीन्हों सुख जो अपार ॥२०८॥ कियो सन्मान विदेह नृपतिने उपवनवासी. कीन्हों। देखन रामचले निजपुरको सुख सबहिन को दीन्हों॥२०९॥ सब पुरदेखि धनुपपुर देख्यो देखे महल सुरंग । अद्धत नगर विदेह विलोकत सुखपायो सब अंग ॥२१०॥ कहत नारिसव जनक नगरकी विधि सों गोद पसार। सीताजूको बर यह चहिये है जोरी सुकुमार॥२१॥ अपने धामफिरे तव दोऊ आये जान भई कछुसांझा कर दण्डवत परसिपद ऋपिके वैठे उपवन मांझ॥२१२॥ संध्याभई कृत्य नित करिकै कीन्हों ऋषि परणाम । पौढ़े जाय चरण सेवा द्विज करके अति. विश्राम ॥ २१३॥ ब्रह्म मुहूरत भयो सवेरोजागे दोऊभाई। कर परणाम देवगुरु द्विजको जल सुस्नान कराई ॥२१४॥ आयेभूप देश देशनके जुरी सभा अतिभारी। तहां बुलाये सकल द्विजनको जनक सभा मंझारी ॥ २१६॥ कौशिक मुनि तहँ छविसों पधारे लिये शिष्य सँग सात । चले नित्य आहनिक सवकर द्विज उर आनंद न समात ॥२१६॥ दोनों भ्रात संगमें लीन्हें आये राजदुवार । जहँ बैठे सव भूप ओपसों बान्यो गर्व अपार ॥२१७॥ अपने अपने भुजबल तोलत तोरनधनुषपुरा। कछुनहि चलत खिसायगये सब रहेवहुतपचिहार।२१८॥ सीता कहत सहेलिनसों पुनि यही कहत रघुनन्दातब उन कहो सकलसुखसागर सो ये परमानन्द ॥२१९॥ वार वार जिय शोचकरत हैं विधिसों वचन उचारी । मन क्रम वचन यह वरदीजो मांगत गोदपसारी ॥ २२ ॥ एकवार सुरदेवी पूजत भयोदरश सखि मोहिं । तादिनते छिन कल न परतहै सत्य कहतहौँ तोहिं ॥ २२१ ॥ सवनृपपचे धनुपनहिं टूट्यो तव विदेह दुखपायो। क्रोध वचनकरि सबसे बोले क्षत्री कोउ न रहायो॥ २२२ ॥ यहसुनि लक्ष्मण भये क्रोधयुत विषम वचन यों बोले । सूरजवंश नृपति भूतलपर जाके पल विन तोले ॥ २२३ ॥ कितकवात यह धनुष रुद्रको सकल विश्वकर लैहौं । आज्ञापायं देव रघुपतिकी छिनकमांझ हठगेहाँ ।। २२४॥. सबके मनको देख अदेशो सीता. आरत जानी । रामचन्द्र तवहीं अकुलाने लीन्हों शारं गपानी ॥ २२५ ॥ छिनमें करलकै जुचढायो देखत. हैं सबभूप । डारयो तोर अपातः । शब्दभयो जैसे कालको रूप ॥ २२६ ॥ सवहीदिशा भई अति आतुर : परशुराम सुनि पायो । परशुसम्हार शिष्यसँगलैकै छिनही में तहँआयो।।२२७॥जय जयकार भयो जगतीपर जनकराज अति हरषे । सुर विमान सब कौतुकभूले जयध्वनि सुमनन वरषे ॥ २२८ ॥ जनकराज तव विप्रपठाये वेगवरात बुलाई । दशरथराज बाजि गजलैकै सवहीं सौज तुराई ॥ २२९ ॥ चली वरात विपुल धनलैकै जुरे मनुज नहिपार । शोभासिंधु करत नहिआवे वर्णन करत उचार॥२३०॥ गुरु वशिष्ठ मुनि लग्न दियो शुभ शुभनक्षत्र शुभवार । आयेजान नृपति सन्माने कीन्हीं अति मनुहार ॥२३१॥ब्याह केलि सुख वर्णनकीन्हों मुनि वाल्मीकिअपार । सोसुखं सूरकह्यों वह - -