पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६१०

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दशमस्कन्ध-२० (६१७) अंतगीतकी जानि॥४२नतश्रीकमल नैन कान्हरकी सोभा नैननि ते नट ऊधो आए योग सिखा वनको जंजाल करै ।। जब मोहन गाइनलै आवत ग्वालन संग घरै । बलदाऊ अरु संग सखा मिलि कहो कैसे विसरै । बंसीवट यमुनातट ठगढे मुरली अधर धरै । सुख समूह विनोद.जे की न्हे को तेहि धरनि धेरै ॥ ब्रजवासी सब भये उदासी को संताप हरै । सूरदासके प्रभु विनु ऊधो को तनु तप्त हरै ॥ १३ ॥ नट ॥ सुंदर श्यामके सँग आँखि । प्रथम ऊधो आनिदै हम सगुन डारें नाखि ॥ द्वै तीन सप्त अनंग तजे श्रुति स्मृति कही जुभाषि । हृदय विद्या ज्ञान धरम सुलोचननि अभिलाषि ॥ जहां जहांकी केलि पियहरि सोई सर चकई पांखि । हारि हेरि अहेरि या हरि रही झुकि झखि झांखि ॥ कमल कुमुदनि इंदु उडुगन मिलन सूरज सापि । राति ज्यों अक्रूर दिन आलि मदन दह मधु मापि ॥४॥मलार ॥ सखीरी मथुरा में द्वै हंस । वै अक्रूर ए ऊधो सजनी जानत नीके ग्रंस।। ए दोउ नीर खीर निरवारत इनहि वधायो कंस । इनके कुल ऐसी चलि आई सदा उजागर वंस ॥ अब इन कृपा करी ब्रज आए जानि आफ्नो अंस । सूर सुज्ञान सुनावत अवलनि सुनत होत मतिभ्रंस॥४५॥ सारंग ॥ मानो दोउ एकहि मतै भए । ऊधो अरु अकूर वधिक मति बन आखेट ठए ॥ वचन पासि विधए मृग माधो.उन रथ नाइ लए। इनहि एहोर मृगी सब सायक ज्ञान हए ॥ योग अग्निकी दवा देखियत चहुँ दिश लाइ दए ॥४६॥ मानो भरे दोउ एकहि सांचे । नख शिख कमलनयनकी सोभा एकै भृगुपद वांचे ॥ दारुजात कैसे गुण इनमें ऊपर अंतर झ्याम । हमको है गजदंत प्रचारित वचन कहत नहिं काम ॥ एई सब असित देह धरे जेते ऐसेई सब जानि । सुर एकते एक आगरे वा मथुराकी खानि ॥४७॥ सबै खोटे मधुवनके लोग । जिनके संग श्याम सुंदर सखी सीखे सब अप योग ॥ आए हैं कहियत व्रज ऊधो युवतिनको लै योग । आसन ध्यान नैन मूंदे सखि कैसे कटै वियोग । हम अहीर इतनी का जानैं कुविजासों संयोग। सूर सुवैद कहालै कोने कहे न जाने रोग॥४८॥नय॥ मधुवनके लोगन को पतिआइ । मुख और अंतर्गति और पतिआं लिखि पठवत जो वनाइज्यों कोइलखत काग निवाए भक्ष अभक्ष खवाइ । कुहुकुहानि सुनि ऋतु वसंतकी अंत मिले कुल अपने जाइ ॥ज्यों मधुकर अंबुज रस चाख्यो बहुरि न बूझी वाते आइ । सूर जहां लगि श्यामगातहै तिनसे कतकीजे सगाइ॥४९॥माईरी मधुपनकी यह रीति । निरखि जानि तजत छिन भीतर नवल कुसुम रस प्रीति ॥ तिनहूँके संगिनको कैसे चित आवति परतीति । हमहिं छाँडि विरमाह कुविजा सँग आए न रिपुरण जीति ॥ जिनि पतियाहु मधुर सुनि वार्ते लागे करन समीति । सूरदास श्यामसंग ऐसो ज्यों भुसपरकी भीति ॥५०॥ मलार ॥ मधुवनके सब कृत ज्ञ धर्मीले । अति उदार परहित डोलत बोलत वचन सुसीले ॥ प्रथम आइ गोकुल सुफलकसुत लै मधुरिपुहि सिधारे । उहां कंस इहां हम दीननिको दूनो काज सँवारे ॥ हरिको सिखै सिखावन हमको अब ऊधो पगधारे । उहां दासी रतिकी कीरतिकै इहां योग विस्तारे । अब तेहि विरह समुद्र सवै हम वूडी चहत नही । लीला सगुन नावही सुनु अलि तेहि अवलंब रही ॥ अव निर्गुण हि गहें युवती जन पारहि कहो गईको । सूर अकूर छपदके मनमें नाहिन त्रास दईको ॥५१॥ ॥ धनाश्री ॥ अव नीके के समुझि परी। जिनि लगि हुती बहुत उर आशा सोऊ वातनि वरी॥वै सुफलक सुत ए सखी ऊधो मिली एक परिपाटी । उनतो वह कीन्ही तब हमसों एरतन /डाइ गहावत माटी ॥ ऊपर मृदु भीतर से कुलिशसम देखतके अति भोरे । जोइ जोइ आवत वा मथु ॥ . .. .. . .... . T -. .