पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६१२

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दशमस्कन्ध-१० (५१९) कियो अब चाहत । ए सब भई चित्रकी पुतरी सून शरीरहि डाहत । हमसों तोसों वैर कहा अलि श्याम अजा भयो राहत । झारि झुरि मनतो तू लै गयो बहुरि पयारहि गाहत ॥ अवतौहै मारुत को गहिवो कासस मूकी लैहै । सूरज जो उन हमहि हते तू अपनो कीयो पैहै॥६॥केदारो।उधो तुम अपनो जतन करौ। हितकी कहत कुहितकी लागत इहां बेकाज अरौ ॥ जाइ करौ उपचार आपनो हो जुदेत शिप नीकी।कछु वै कहत कछु कहि नहिं आवत धनि देखत नहिं नीकी ॥ साधु होइ ताहि उत्तरदीजै तुमसों मानी हारि । यह जिय जानि नंदनंदन तुम इहां पठाए ढारि ।। मथुरा गहौ वेगि इन पाँइन उपज्याहै तनुरोग । सूर सुवैद वेगि ढोहो किन भए मरनके योग ॥६२॥ नट ॥ कह्यो तुम्हारो लागत काहे । कोटिक जतन कही जो ऊधो हम नवहार्किहैं पाहे ॥ काहेको अपने जीमेरी तू सतलै मनलाहे । यह भ्रमतौ अवहीं भजि जैहै ज्यों पयारके गाहे ॥ काशीके लोगनलै सिखयो जे समझे या माहे।सूरश्याम विरहत ब्रजभीतर जीजतुहै मुखचाहे ६३||सारंग ॥ आप देखि पर देखिरे मधुकर तब औरन सिख देह । वीतैगी तवहीं जानोगे महाकठिनहै नेह ।। मन जु तुम्हारे हरि चरणनहै तन लै गोकुल आयो । नँदनंदनके संग के विछुरे कहि कौने सचपायो । गोकुल रहौ जाहु जनि मथुरा झूठो माया मोहागोपी कहैं सूर सुन ऊधो हमसे तुमहूं होहु ॥६॥ तू अलि कहा परयो कहि पैडब्रिज तू श्याम अजा भयो हमको इहऊ वचत नबँडै । यह उपदेश सेतह भाए जो चढि कहौ वरैडे । राजति जतन यशोदा नंदहि हृदय मांझ सब मैडे ॥छांडि राजमारग यह लीला कैसे चलहि कुपैडीया आदर पर अजहूं वैठो टरत न सूरपलैंडै ॥६६॥सारंग। घरहीके वादेहोरावरे नाहिन मीत वियोग वशपरे अनव्योगे अलिवावरे। अधरसुधा मुरलीकी पोपे योग जहर कत प्यावरे ॥ अवला कही योग हम जानैं ज्यों जल सूखे नावरे ॥ वरु मरिजाइ चरै नहिं तिनका सिंहको इहै सुभाइरे॥जानत सूरदास कठहरियो तजि अनत न ठारे॥६६॥सारंग। तुम अलि कासों कहत वनाई । विनु समुझे हम फिरि झतिहैं वारक बहुरी गाई ॥ किहिधौं गमन कीन्हों स्यंदनचढि सुफलकसुतके संग ॥ किहि विधि रजक लिए नानापट पहिरे अपने अंग।। किहि इति चाप निदरि गज निजवल किहि बल मल्ल मथिजाने । उग्रसेन वसुदेव देवकी किहि वनिगडते आने । तू काकीहै करत प्रशंसा कौन घोप पठायो॥ किहिमातुल हति कियो जगत यश कौन मधुपुरी छायो॥ माथे मोर मुकुट उरगुंजा मुखमुरली कलवाजै । सूरदास यशुदानंद नंदन गोकुल कान्ह विराज।।६७॥सारंग ॥ हमको हरिकी कथा सुनाउ । ए आपनी ज्ञानगाथा अलि मथुराही लै जाउ ॥ वै नर नारि नीके समुझेंगी तेरो वचन बनाउ । पालागौं ऐसी इन वातनि उनहीं जाइ रिझाउ ॥ जो शुचि सखा श्याम सुंदरको अरु जियअति सतिभाउ । तो वारक आतुर इन नैनन वह मुख आनि देखाउ ॥ जो कोउ कोटिकरै कैसेहू विधि विद्या व्योसाउ । तो सुन सूर मीनको जलविनु नाहिंन और उपाउ ॥६८॥भोपाल।। ऊधो हरि विनु बज रिपु बहुरि जियोजे हमरे देखत नंदनंदन हति हति हुते सो दूरि किये ॥ निशिको रूप वकी बनि आवत अति भयकरत सुकंपहिए । तापहते तनु प्राण हमारे रविहू छिनक छंडाइ लिए ॥ उर ऊंचे उसास तृणावर्ततिहि सुख सकल उड़ाइ दिए । कोटिक काली समकालिंदी परसत सलिल नजात पिए ॥ वन वकरूप अघासुर समघर कतह तौन चित सकिए ॥ केशी कठिन कर्म कैसो विन काको सूर शरन तकिए ॥६९॥ सोरठ ॥ ऊधो तुम ब्रजकी दशा विचारो। ता पाछे यहं सिद्धि आपनी योगकथा विस्तारो॥ जाकारण तुम पठए माधो सो सोचो जियमाहीं । कितोकबीच विरह परमारथ जानत |