पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६१३

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(५२०) सूरसागर। ... हौ किधौं नाहीं ॥ तुम परवीन चतुर कहियतही संतन निकट रहतहो ।. जल वूडत अवलंब फेनको फिरि फिरि कहा गहतहो ॥ वह मुसकानि मनोहर चितवन कैसे उरते टारौ । योग युक्ति और मुक्ति परमनिधि वा मुरलीपै वारौ। जिहि उर कमलनैन जु वसतहैं तिहि निर्गुण क्यों आवै । सूरदास सो भजन वहाऊ जाहि दूसरो भावै ॥ आसावरी ॥ उधो कहांकी प्रीति हमारे । अजहूँ रहत तन हरिके सिधारे ॥ छिदि छिदि जात विरह शर मारे । पुरि पुरि आवत अवधि विचारे॥ फटत न हृदय सँदेश तुम्हारे। कुलिशते कठिन धुकत दोउ तारे ॥ वर्षत नैन महा जलधारे। उरपाषाण विदरत नविदारे । जीवन मरन दोउ दुखभारे । कहियत सूर लाज पतिहारे ॥७०॥सारंगा ऊधो इतनो मोहिं सतावतः । कारी घटा देखि वादरकी दामिनि चमकि डरावताहिम- सुतापतिको रिपु व्यापै दधिसुत रथ न चलावतावूखंडन शब्दसुनतही चितचकृत उठि धावत।। कंचनपुरपति को जो भ्राता ते सब बलहि न आवतः । शंभूसुतको जा वाहन है कुहकै असल सला वत ॥ यद्यपि भूषण अंग बनावत सोइ भुजंग होइ धावत। सूरदास विरहिन अतिव्याकुल खगपति चढ़ि किन आवत।।१॥धनाश्री।। हमको तुमविन सबै सतावत । लखौन मधुप चतुर माधोसों तुमहूं सखा कहावत ॥ ताको तनु हरिहरयो दीनसों कुल सर्वागतदीनी । सोइ मारत करि वार पार करि हमको कानन कीनी ॥ सिंधुते काढ़ि शंभुकर सौंप्यो गुनहगारकी नाई । सोशशि प्रगट प्रधान कामको चहुँदिश देत दोहाई ॥ अमरनाथ अपराध क्षमाकरि तबहिं भोग मुकरायो । प्रात इंद्र कोपित जलधरलै ब्रजमंडल पर छायो। पूंछ पूंछ सरदार सखनके इहिविधि दई बड़ाई। तिन अतिबोल झोल तनु डारयो अनल भँवरकी नाई। पंछ छोरि अलिसूझ पंछधीर तिनहूं कोपि जनायो । पत्यो जो रेख ललाट और सुख भेटि दुकार बनायो। कौन कौनको विनय कीजिए कहि जेतिक कहि आई। सूरझ्याम अपने याबजकी इहिविधि कान कटाई॥७२॥ नट ॥ ऊधो यहु हित: लागत काहे । निशदिन नैन तपत दरशनको तुम.जु कहत हृदयमाहे ॥ पलक नपरत चहूदिश चितवत बिरहानलके दाहे ॥ इतनी आरति काहे नमिलही जो पर श्याम इहां है । पालागौं ऐसेही रहनदे अवधि आशजलथाहे। जिनि वोरहि निर्गुण समुद्र में पुनि पाई बिनचाहै ।। उपजि परी जासों तिहि अंग अंग सो अंग वनै निबाहै।सूरकहालै करै पपीहा एते सर सरिताहै |७३||मलार।। ह्यांतुम कहत कौनकी बातें । सुन ऊधो हम समझत नाही फिरि बूझतिहैं तात ॥ को नृप भयो कंस किन मारयोको वसुदेव सुत आहियां यशुदासुत परममनोहर जीजतुहै मुख चाहि ॥ नितप्रति जातं धेनु वनचारन गोप सखनके संग। वासरगत रजनी मुख आवत करतनन गति पंगाको अविनाशी अगम अगोचर को विधि वेद अपार । सूर वृथावकवाद करत कत इहिब्रज नंदकुमार ॥ ७॥ उधो हरि काहेके अंतर्यामी। अजहुँ नआइ मिले इहि औसर अवधि बतावत लामी। कीन्ही प्रीति पुहुप सुंडाकी अपने कानके कामी । तिनको कौन परेखो कीजै जे हैं गरुड़केगामी ॥ आई उपरि प्रीति कलईसी जैसी खाटी आमी। सूर इते पर खुनसनि मरियत उधो पीवत मामी॥७॥. मधुकर वह जानी तुम सांची। पूरणब्रह्म तुम्हारो ठाकुर आगे माया नाची। यह इहि गाउँ नसमु झत कोऊ कैसो निर्गुणहोत । गोकुल वाट परे नंदनंदन उहै. तुम्हारो पोत ॥ को य. शुमति ऊखलसों बाँध्यो को दधि माखन चोरे । कै ए दोऊ रूख हमारे यमला अर्जुन तोरे ॥ कों लै वसन चढयो तरु शाखा मुरली मन औ करषै । कै रसरास रच्यो वृंदावन हरषि सुमन सुर

वर।।ज्यों डाक्यों तव कत विन बूडे काहे को जीभ पिरांवतातव जु सूर प्रभु गए क्रूरलै अब क्यों .

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