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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६१४

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दशमस्कन्ध-१०


नैन सिरावत ॥७६॥ कान्हरो ॥ निर्गुण कौन देश को वासी । मधुकर कहि समुझाइ सौंह देवूझति सांचन हाँसी । कोहै जनक कौन है जननी कौन नारि को दासी । कैसोवरन भेप है कैसो केहि रस में अभिला सीपावैगो पुनि कियो आफ्नो जोर करैगो गासी । सुनतमौन है रह्यो वावरो सूर सबै मति नाशी ॥ ॥७७॥ कल्याण ॥ ऊधो हम हरि कत विसराए । एक दिवस वृंदावन भीतर करकरि पत्र डसाए ॥ सुमि रि सुमिरि गुण गाऊं श्यामके नैन सजल दै आए । पलकको विछुरे किते दिन वीते प्रीतम भए पराए । शीतल पंथ जोवति हम निशि दिन कित विरहिनि विरमाए । सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन विना मदनकी ताप सताए ॥७८॥ अथ गोपी कुविना मति तरकवदति ॥ धनाश्री ॥ ऊधो अव चित भए कठोर । पूरव प्रीति विसारी गिरिधर नौतन राचे और ॥ जन्म जन्म की दासी तुम्हारी नागर नंद किसोर । प्रीतिके वाण लगाए मधुकर निकार गए दोउ ओर ॥ जब हार मधुवनको जु सिधारे धीरज धरत न ढोर। सूरदास चातक भई गोपी कहां गए चित चोर ॥७९॥ मलार ॥ ऊधो हमहिं न जान्यो श्यामहि । सेवा करत करी कछु और गई जाति कुल नामहि ॥ तन मन चोरि प्रीति जो जोरत कौन भलाई तामहि । ते कहा जाने पीर पराई लुब्धक अपने कामहि ॥ अंतहु सूर सोई पै प्रगटै होइ प्रकृति जो जामहि । नागरि नारि रतिकेरति नागर रचे कुविजा वा महि ॥८०॥ गौरी ॥ मधुकर उनकी बात हम जानी । कोऊ हुती कंसकी दासी कृपाकरी भईरानी । कुविना नाउँ मधुपुरी बैठी लै सुवास मन मानी । कुटिल कुचील जन्मकी टेढी सुंदर करि घर आनी । अब वह नवल वधू वै बैठी ब्रजकी कहत कहानी । सूरश्याम अब कैसे पैयै जासों मिली सयानी ॥८१॥ मलार ॥ बरु उन कुविजा भलो कियो । सुनि सुनि समाचार ए मधुकर अलिक जुडाव त हियो ॥ जाको हरि मन हरयो रूपकार हरयो सुपुनि नदियो । तिन अपनो मनहरत न जान्यो हँसि हँसि लोग जियो ॥ सूरतनक चंदन चढ़ाय उर श्री सर्वस जुपियो । और सकल नागरि नारिन को दासी दाँव लियो ॥८२॥ केदारो ॥ उधो अब कछु कहत न आवै । शिरपर सौति हमारे कुविजा चा मके दाम चलावै ॥ कछुक मंत्र करयो चंदनमें ताते श्यामहि भावै । आपनही रंग रची साँवरों शुक ज्यों वैठि पढावै । दासी हुती असुर दैयतकी अब कुलवधू कहावै ॥ त्यों नटनी कर लिए लकुटिया कपि ज्यों नाच नचावै ॥ टूटयो नातो या गोकुलको लिखि लिखि योग पठावै ॥ सूरदास प्रभु हमहिं निदरि दाधेपर लोन लगावै ॥८३॥कान्हरो ॥ सुनि सुनि ऊधो आवत हांसी । कहां वै ब्रह्मादिकके ठाकुर कहां कंसकी दासी इंद्रादिकको कौन चलावै शंकर करत खवासी । निगमआदि वंदीजन जाके शेष शीशकेवासी ॥ जाके कमला रहत निरंतर कौन गनै कुबिजासी । सूरदास प्रभु दृढकरि बांधे प्रेम पुंजिका पासी ॥८४॥ मलार ॥ तवते वहरि दरश नहिं दीन्हों । ऊधो हरि मथुरा कुविज़ाघर इहै नेम बत लीन्हों । चारिमास वाके लीन्हे मुनिहु रहत इकठौर । दासी धाम पवित्र जानिकै नहिं देखत उठि और ॥ ब्रजवासी सब ग्वाल कहत हैं कतव्रज छाँडि गए । सूर सगुनई जात मधुपुरी निर्गुण नामभए ॥८५ ॥ नेतश्री ॥ कुवरीको न्याउरी जासों गोविंद बोले । जिनसों कृपाकरी नॅदनंदन सो काहेन ऐंडी डो ॥ कारोकारो कुटिल अति कान्हर अंतर ग्रंथि न खोले । हम वौरी वकवाद करत हैं वृथा आरति यह जो लै ॥ प्रीति पुरातन पारी उनसों नेहकसोटी तोलै । सूरश्याम उपहास चल्यो ब्रज आप आपने टोले ॥८६॥ कामगवारी सोच परयो । रूपहीन कुलहीन कूवरी तासों मन जो ढरयो । उनको सदा स्वभाव सलिलको खेरनी खंडझरयो । सकुचो नहीं जानि ऊंचो तनु उमँगति भन पसरयो । फेरेफिरत असुर दासकि जनु जडमांड भरयो ।