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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६१५

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सूरसागर।


सूरसागर । मुरदास गोपाल रसिकमणि अकरन करन करयो ॥८७॥मलार ॥ काहेको गोपीनाथ कहावत । जुपै मधुप हरि हितू हमारे काहेन गोकुल आवत ॥ सुपनेकी पहिचानि जीयमहि हमहिं कलंक लगा वत । जो परि कृष्ण कुवरिहि रीझे तो सोई किन नाम धरावत।।ज्यों गजराज काजके औसर और दशन देखावत । ऐसे हम कहिवे सुनवेको सूर अनत विरमावत ॥ ८८ ॥ कहिअत कुविजा कृष्ण नेवानी । छुवत अटपटी चाल गई मिटि नवसत कंचुकी साजी ॥ मिलीजाइ आगे दरवाजे चंदन देत ठगी कारे बाजी। बांधो सुरति सुहाग सवनको हरि मिलि प्रीति उपराजी ॥ सुफल भयो पछिलो तप कीन्हों देखि स्वरूपकामरति भाजी । जगतके प्रभु वश किए सूर सुनि सवहि सुहा गिनिके शिरगानी ॥८९॥ रागसारंग ॥ ऊधो जाके माथे भागु । अवलन योग सिखापन आए चेरिहि चपरि सोहागु ॥ आए वचन योगको वेली काटि प्रेमकी वाग । कुविजहि करि आए पटरानी हमाह देत वैराग । लौंडीकी डौंडी वाजी जग वन्यो श्याम अनुराग । कुविजा कमलनैन मिलि खेलत बारहमासी फाग ॥ मिल्यो सोहायो साथ श्यामको कहाँ हंस कहां काग । सूरदास प्रभु ऊंख छांडिकै चतुर चचोरत आग ॥९०॥ गौरी ॥उधोजू जाइ कहौ दूरि करें दासी । नागर नर जीव विचार करत हैं सब हाँसी।हेम कांच हंस काग खरि कपूर जैसो । कुविजा अरु कमलनैन संग बन्यो ऐसो जातिहीन कुलविहीन कुविना कान्ह दोऊाजो ऐसिनके संग लागै सूर तैसो सोज ॥९१॥मलार ॥ ऊधो कहा हमारीचूकावै गुण अवगुण सुनि सुनि हरिके हृदय उठतिहै ककाविही काज छोडि गए मधु वन हम घटि कहाकरीतन मन धन आतमा निवेदन सोउ न चितहि धरी॥रीझे जाइ सुंदरी कुविजहि यहि दुख आवै हाँसीयद्यपि कूर कुरूप कुंदरस तद्यपि हम ब्रजवासी ॥ एते ऊपर प्राणरहत हैं घाट कहहु कहाकहिए । पूरव कलिखे विधि अक्षर सूर सबैसोसहिए ॥९२॥ मलार ॥अलि हमहिं कान्हको इहै परेखोआवातव वह प्रीति चरणजावक शिर अव कुविजा मनभावोतव कत पाण धरोगोवर्धन कत ब्रजपतिहि छंडावै । अब वह रूप अनूप कृपाकार नैनन क्यों न देखावै ॥ तव कत वैन अधर धार मोहन लैलै नाम खुलावै । अरु कत लाड लडाइ राग रस हँसि हॉस कंठ लगावै ॥ जेहि सुख संग समीप राति दिन तेहि क्यों योग सिखावै । जोहि मुख अमृत पिऊ रसनाभरि तेहि क्यों विषहि पिआवै ॥ करमीडति पछिताति मनहिमन क्रम क्रम करि समुझावै । सोइ सुनि सूरदास अब विरहिनि यहि दुख दुख अतिपावै ॥९३॥सोरठ ॥ मेरे जिय इहै परेखो आवै । सरवस लूटि हमारो लीनो राजकूवरी पावै ॥ तापर एक सुनोरी अजगुत लिखि लिखि योग पठावासूर कुटिल कुविना के हितको निर्गुण वेद सुनावै ॥९४॥रागमलार॥ ऊधो आवै इहै परेखो । जब वारे तब वैसी मिलनीकी बडे भए इह देखो ॥ योग यज्ञ तप नेम दान व्रत इहै करत तब जात । क्योंहुँ बालसुत बढ़े कुशलसों कठिन मोहकी बात ॥ करि निज प्रगट कपट पिक कीति अपने काज लगिधीर । काज सरे दुखगए कहौधौँ का वायसकी पीर ॥ जहँ जहँ रहहु राज्यकरौ तहँ तहँ लेहु कोटिको भार । इहै अशीश सूर प्रभु सों कहि न्हात खिसै जिन वार॥९५॥ मलार ॥ हरि ब्रज कहिं कह्योहो आपन । वेगि सुवचन सुनाइ मधुपजी मोहि व्यथा विसरावन ॥ हौं यह बात कहा जानों प्रभु जात मधुपुरी छावन । पछिली चूक समुझि उर अंतर अव लागी पछितावन ॥ सब निशि सूर सेज भई वैनि शशि सीखो तनुत्तावन । अब यह कर चक अंगनि ऊपर है दशहू दिशिवनसावन ॥९६॥ सारंग ॥ ताम्हरी प्रीति किधौं तरवारि । दृष्टिधार धरि हती जपहिले घायल सर्व ब्रजनारि गिरीसुमारखेत वृंदावन रणमानी मनहारि । विह्वलविकल सभा रति छिन छिन वदन सुधानिधि वारि ॥ अब यह ॥