पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६१७

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- - (५२४) . सूरसागर। जो सोऊतौ मोह हरिमिलें ऊधो जागौ देइ अतिदाइ ॥ कमलनैन मधुपुरी सिधारे हमहुँन संग । लगाइ । अब यह व्यथा कौन विधि भरिहैं कोऊ देइ वताइ ॥ उदमद यौवन आनि गठिकै कैसे. रोको जाइ।सूरदास स्वामीक मिलिव तनुकी तपत बुझाइ॥८॥ मलारं ॥ गोपालहि वारहोकी टेव। जानति नहीं कहांते सीखे चोरोके छल छेव ॥ तव कछु दूध दह्यो ले खाते काररहती हौं कानि। कैसे सही परत अव मोपै मनमाणिकही हानि ॥ ऊधो नँदनंदनसों कहियो राजनीति समुझाइ । राजहुभए तजत नहि लाभाह गुप्तनहीं यदुराइवुद्धि विवेक अरु वचन चातुरी पहिले लई चुराई सूरदास प्रभुके गुण ऐसे कासों कहिए जाई ॥९॥ सारंग ॥ विसरत क्यों गिरिधरकी बातें । अवधि आश लांग रह्यो मधुप मन तजि नगयो घट तातै ॥ हरिके विरह छीनभई ऊधो दोउ दुखपरे सँघाते। तनरिपुकाम चित्त रिपु लीला ज्ञानगम्य नहिं याते॥श्रवण सुन्यो चाहत गुणहरिको जावे कथा पुराते। लोचन रूप ध्यान धरयो निशि दिन कहो घटैको काते। ज्यों नृप प्राणगए सुत अपने विरचि रह्यो जो जाते । सूर सुमति तोही पै उपजै हरि आचैं मथुराते॥१०॥मलार॥ उधो कुलिश भई यह छाती । मेरे मन रसिक लग्यो नंदलालहि झपत रहत दिन राती ॥ तजि वन 'लोग पिता अरु जननी कंठ लाइ गए काती। ऐसे निठुर भए हरि हमको कवहुँ न पठई पाती ॥ पिय पिय कहत रहै जिय मेरो होइ चातककी जाती । सूरदास प्रभु प्राणहि राखहु होइ करि बूंद सेवाती॥११॥ गौरी ॥ हम तौ कान्हकेलिकी भूखी । कहा करौं ले निर्गुण तुम्हरो विरहिनि विरह विदूखी ॥ कहिए कहा इहै नहिं जानत कहो योगही योग । पालागौं तुमसे अपने पुर वसत वापुरे लोगाचंदन अभरन चीर चारु वरु नैकु आपु तनु कोजीदिंड कमंडलु भस्म अधारी तौ युवतिन कहँ दीजै । ईहै देखि दृष्टि धौं गोपिन क्यों धौं दृढ व्रत पायो । सूरदास यदुनाथ मधुपको प्रेमहि पढन पठायो ॥१२॥ गौरी ॥ तुमहि मधुप गोपाल दुहाई । कबहुँक श्याम करत इहांको मन कैयौं चित सुध्यो विसराई । हम अहीरि मतिहीन वावरी हटकतहू हठि करहिं मिताई । उइ नागर मथुरा निर्मोही अंग अंग भरे कपट चतुराई ॥ सांची कहहु देख श्रवणन सुख छांडहु छिआ कुटि लदु चिताई।सूरदास प्रभु विरदलाज धरि मेटहु इहांके लोग हँसाई॥१३॥अथ उद्दव वचन ॥ विहागरो॥ गोपी सुनहु हरि संदेशाकह्यो पूरण ब्रह्म ध्यावो त्रिगुण मिथ्याभेस|मैं कहों सो सत्य मानहु त्रिगुण, डारो नाषापंचत्रिय गुण सकल देही जगत ऐसो भाषाज्ञान विनु नर मुक्ति नाही यह विषै संसार। रूप रेख न नाम कुल गुण वरण-अवर नसारमात पितु कोउ नाहि नारीजगत मिथ्या लाइ।सूर सुख दुख नाहि जाके भजो ताको जाइ॥१४॥सारंगाऐसीबात कहौ जिनि ऊधोनिदनंदनकी कान करत.न तो आवत आखर मुखते सूधो ॥ वातनही उडि जाहि और ज्यों त्यों हम नाहिंन काची। मन क्रम वचन विशुद्ध एकमत कमल नेन रंगराची ।। सो कछु जतन करौ पालागौं मिटै हृदयको शूल । मुरली धरे आनि दिखरावो बाढे प्रीति दुकूलाइनही बातन भए श्याम तनु अजहुँ मिला वतहो गढि छोलिासूर वचन सुनि रह्यो ठग्योसो बहुरि न.आयो बोलि. ॥ १६॥ सोरठग फिरि फिरि कहा वनावत वात।प्रातकाल उठि देखत ऊधो घर घर माखन खाते जिनकी बात कहतही हमसों सोहै हमसों दूरि । इहां न निकट यशोदा नंदन प्राण सजीवन मूरिवालक संग लिए दधि चोरत खात खवावत डोलत। सूर शीशनीच्यो क्यों नावत अब काहे नहिं बोलत॥१६॥सारंग।।फिरिफिरि कहा सिखावत मौन। वचन दुसह लागत अलि तेरे ज्यों पजरे पर लौन ॥ सीगी मुद्रा भस्म . अधारी अरु आराधन पौन.। हम अबला अहीर शठ मधुकर ध्वरि जानहिं कहि कौन ॥ यह मत