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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६१८

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दशमस्कन्ध-१०


जाइ तिनहिं तुम सिखबहु जिनही यह मत सोहंत । सूर आजलों सुनी न देखी पोत पूतरी पाहत ॥ ॥१७॥ केदारो ॥ रहि रहि देख्यो तेरो ज्ञानासुफलकसुत सर्वसुरस लैगयो तू करन आयो ज्ञानावृथा कत अपलोकलावत कहत यह उपदेश । उरपिकोतर होहु जानिन कहत वैन वलेस ॥ योगमत अति विशद कीरति होहि वांछित काम । सदा तनु प्रताप भरेहैं वै पुरुष तुमधामहिम चरत कंज सुवास लै लै जीवति ऐसीरीतिं । कहत तिन सन धूम घोटहु नाहिं चाहत प्रीति ॥ अजहुँ नाहिन कहि सिरानो यह कथाको छेवासूर धोखो तनकहै हम देखि लीन्ही सेव ॥१८॥ धनाश्री ॥ उधोजी हमहि नयोग सिखए । जेहि उपदेश मिलै हरि हमको सो व्रत नेम बतैए ॥ मुक्ति रहो घर वैठि आपने निर्गुण सुनत दुख पैए । जिहि शिरकेशकुसुम भरि गूदे तेहि कैसे भसम चढैए ॥ जानि जानि सव मगन भएहैं आपुन आपु लखेए । सूरदास प्रभु सुनहु नवाविधि बहुरि कि या वन अइए ॥१९॥ मलार ॥ हम तो तवहीं ते योग लियो।जवहींते मधुकर मधुकनको मोहन गवन कियो । रहित सनेह सरोरुह सवतन श्रीखंड भस्म चढाए । पहिरि मेखला चीर चिरातन पुनि पुनि फेरि सिआए । श्रुति ताटक नैन मुद्रावलि औधि अधार अधारी । दरशनभिक्षा माँगत डोलत लोचन पत्र पसारी । बांधो वेणु कंठ शृंगी पिय सुमिरि सुमिरि गुण गावताकर वर वेत दंड उर उर तन सुनत श्वान दुख धावता । गोरख शब्द पुकारत आरत रस रसना अनुराग । भोग भुगति भूलेहु भावनहिं भरी विरह वैराग ॥ भूलीभई फिरति भ्रम श्रमके वन वीथिनि दिन राति । वारक आवत कुटुंब यात्राहै सोऊ नसोहाति ॥ परम गुरू रतिनाथ हाथे शिर दियो प्रेम उपदेश । चतुर चेटकी मथुरानाथसों कहियो जाइ आदेश ॥ भोगीको देखतु या ब्रजमें योग देन जेहि आए । देखी सिद्धि तिहारे सिद्धकी जिनि तुम इहां पटाए । सूर सुमति प्रभु तुमहिं लखायो हमरे सोई ध्यान । अलि चलि और ठौर देखावहु अपनो फोकट ज्ञान ॥२०॥ मलार ॥ ऊधो कार रहीं हम योग । कहा एतौ वाद ठानै देखि गोपी भोग ॥ शीश सेली केश मुद्रा कनक बोरी वीर । विरह भस्म चढ़ाइ बैठी सहज कंथा चीर ॥ हृदय सींगी टेर मुरली नैन खप्पर हाथ । चाहते हरि दरश भिक्षा दई दीनानाथ ॥ योगकी गति युक्ति हमपै सूर देखो जोइ । कहत हमको करन योग सो योग कैसो होइ ॥२१॥ ऊधो योग तवहिते जान्यो । जादिनते सुफलकसुतके सँग रथ व्रजनाथ पलान्यो । तादि नते सब छोह मोह गयो सुत पितु हेतु भुलान्यो। तजिमाया संसार तर्क जिय बज बनिता व्रत ठान्यो । नैन मंदि मुख मौनरही धरि तनु तपतेन सुखान्यो । नँदनंदन मुरली मुख पर धरि उहै ध्यान उर आन्यो । सोइ रूप योगी जेहि भूले जो तुम योग वखान्यो । ब्रह्म उपचि मुए ध्यान कर तही अंत उनहिं पहिचान्यो ॥ कहौ सुयोग कहालै कीजै निर्गुणही नहिं जान्यो । सूर उहै निज रूप श्यामको है मन माहँ समान्यो ॥२२॥ सारंग ॥ ए अलि कहा योगमें नीको । तजिरसरीति नंदनंदनको सिखवत निर्गुण फीको । देिखति सुनति नाहिं कछु श्रवणनि ज्योति ज्योति करि धावति । सुंदर श्याम कृपालु दयानिधि कैसे हो विसरावति ॥ सुनिरसाल मुरलीकी सुरध्वनि सुर मुनि कौतुक भूलोअपनो भुजा ग्रीव पर मेलो गोपिनके मन फूल । लोककानि कुलके भ्रम छाँडे प्रभु सँग घर बन खेली। अब तुम सूर सिखावन आए योग जहरकी वेली २३॥ गोरी ॥ ऊधो योग कहत हो कहा योग किये । श्याम सुंदर कमल नयन वसो मेरे जिये ॥ योग युगति साधिकै जे तप योगिनि योग सिरायो । ताहको फल सगुण मूरती प्रगटहि दरशन पायो । मकराकृत कुंडल छवि राजित लोल कपोले । मोर मुकुट पीत वसन वाँसुरी करवाले ॥ ऐसे प्रभु गुणनिधान दरश देखि जीजै । राम श्याम निधि