दशमस्कन्ध-१० जाइ तिनहिं तुम सिखबहु जिनही यह मत सोहंतः। सूर आजलों सुनी न देखी पोत पूतरी पाहत॥ ॥३७॥केदारो॥ रहि रहि देख्यो तेरो ज्ञानासुफलकसुत सर्वसुरस लैगयो तू करन आयो ज्ञानावृथा कत अपलोकलावत कहत यह उपदेश :। उरपिकोतर होहु जानिन कहत वैन वलेस ॥ योगमत अति विशद कीरति होहि वांछित काम । सदा तनु प्रताप भरेहैं वै पुरुष तुमधामहिम चरत कंज सुवास लै लै जीवति ऐसीरीतिं । कहत तिन सन धूम घोटहु नाहिं चाहत प्रीति॥अजहुँ नाहिन कहि सिरानो यह कथाको छेवासूर धोखो तनकहै हम देखि लीन्ही सेव।। ३८॥ धनाश्री ॥ उधोजी हमहि नयोग सिखए । जेहि उपदेश मिलै हरि हमको सो व्रत नेम बतैए ॥ मुक्ति रहो घर वैठि आपने निर्गुण सुनत दुख पैए । जिहि शिरकेशकुसुम भरि गूदे तेहि कैसे भसम चढैए ॥ जानि जानि सव मगन भएहैं आपुन आपु लखेए । सूरदास प्रभु सुनहु नवाविधि बहुरि कि या वन अइए ॥१९॥ मलार। हम तो तवहीं ते योग लियो।जवहींते मधुकर मधुकनको मोहन गवन कियो। रहित सनेह सरोरुह सवतन श्रीखंड भस्म चढाए । पहिरि मेखला चीर चिरातन पुनि पुनि फेरि सिआए। श्रुति ताटक नैन मुद्रावलि औधि अधार अधारी । दरशनभिक्षा माँगत डोलत लोचन पत्र पसारी। बांधो वेणु कंठ शृंगी पिय सुमिरि सुमिरि गुण गावताकर वर वेत दंड उर उर तन सुनत श्वान दुख धावता|गोरख शब्द पुकारत आरत रस रसना अनुराग । भोग भुगति भूलेहु भावनहिं भरी विरह वैराग ॥ भूलीभई फिरति भ्रम श्रमके वन वीथिनि दिन राति । वारक आवत कुटुंब यात्राहै सोऊ नसोहाति ॥ परम गुरू रतिनाथ हाथे शिर दियो प्रेम उपदेश । चतुर चेटकी मथुरानाथसों कहियो जाइ आदेश ॥ भोगीको देखतु या ब्रजमें योग देन जेहि आए। देखी सिद्धि तिहारे सिद्धकी जिनि तुम इहां पटाए । सूर सुमति प्रभु तुमहिं लखायो हमरे सोई ध्यान । अलि चलि और ठौर देखावहु अपनो फोकट ज्ञान ॥२०॥मलार। ऊधो कार रहीं हम योग । कहा एतौ वाद ठानै देखि गोपी भोग ॥ शीश सेली केश मुद्रा कनक बोरी वीर । विरह भस्म चढ़ाइ बैठी सहज कंथा चीर ॥ हृदय सींगी टेर मुरली नैन खप्पर हाथ । चाहते हरि दरश भिक्षा दई दीनानाथ ॥ योगकी गति युक्ति हमपै सूर देखो जोइ । कहत हमको करन योग सो योग कैसो होइ ॥२१॥ऊधो योग तवहिते जान्यो । जादिनते सुफलकसुतके सँग रथ व्रजनाथ पलान्यो।तादि नते सब छोह मोह गयो सुत पितु हेतु भुलान्यो। तजिमाया संसार तर्क जिय बज बनिता व्रत ठान्यो । नैन मंदि मुख मौनरही धरि तनु तपतेन सुखान्यो । नँदनंदन मुरली मुख पर धरि उहै ध्यान उर आन्यो । सोइ रूप योगी जेहि भूले जो तुम योग वखान्यो । ब्रह्म उपचि मुए'ध्यान कर तही अंत उनहिं पहिचान्यो ॥ कहौ सुयोग कहालै कीजै निर्गुणही नहिं जान्यो । सूर उहै निज रूप श्यामको है मन माहँ समान्यो२२॥सारंगाए अलि कहा योगमें नीको।तजिरसरीति नंदनंदनको सिखवत निर्गुण फीको।देिखति सुनति नाहिं कछु श्रवणनि ज्योति ज्योति करि धावति।सुंदर श्याम कृपालु दयानिधि कैसे हो विसरावति॥सुनिरसाल मुरलीकी सुरध्वनि सुर मुनि कौतुक भूलोअपनो भुजा ग्रीव पर मेलो गोपिनके मन फूल।लोककानि कुलके भ्रम छाँडे प्रभु सँग घर बन खेली। अब तुम सूर सिखावन आए योग जहरकी वेली२३||गोरी ऊधो योग कहत हो कहा योग किये।श्याम सुंदर कमल नयन वसो मेरे जिये ॥ योग युगति.साधिकै जे तप योगिनि योग सिरायो । ताहको फल सगुण मूरती प्रगटहि दरशन पायो । मकराकृत कुंडल छवि राजित लोल कपोले । मोर मुकुट पीत वसन वाँसुरी करवाले ॥ ऐसे प्रभु गुणनिधान दरश देखि जीजै । राम श्याम निधि