पियूष नयनन भार पीज ॥ जाको अयन जल मे तेहि अनल कैसे भावै । सुरज प्रभु गुणनिधान निर्गुण क्यों गावै ॥२४॥ मलार ॥ मधुकर श्याम हमारे ईश । तिनको ध्यान धरै निशि वासर औरहि नवै नशीश ॥ योगिन जाइ योग उपदेशहु जिनके मन दश बीस । एकै चित एके वह मूरति पलन लगे दिन तीस ॥ काहेको निर्गुण ज्ञान गनत हो जित तित डारत खीस । सूर हृदय में वसत निरंतर त्रिभवन पति जगदीस ॥२५॥ सोरठ ॥ योगकी गति सुनत मेरे अंग आगि वड़ोसुलगि सुलगि हम ज रतिही तुम आनि पूँकि दई ॥ भोग कुविजा कूवरी सँग कौन बुद्धि भई । सिंह भष तजि चरत तिनुका सुनी बात नई ॥ ध्यान धरत नटरत मूरति त्रिविध ताप तई । सूर हरिकी कृपा जापर सकल सिद्धिमई ॥२६॥ मलार ॥ मधुकर रह्यो योगलौं नातौकतहि बकत बेकाम काजबिन होहि न ह्यांते हातौ ॥ जब मिलि मिलि मधुपान कियौहौ तबतू कहिधौं कहातौ । अब आयो निर्गुण उपदेश नसो नहिं हमहिं सुहातो । काचेगुण ज्यों तनुले वैधौ लै वारिजको तातो । मेरेजानि गह्यो चाहता फेरिकि मैगलमातो । यह लैदेहु सूरके प्रभुको आयो योग जहातौ ॥ जब चहिहै तब मांगिपठेहै जोकोउ आवत जातो ॥२७॥ सारंग ॥ उधो योग किधौं यह हाँसी । कीनी प्रीति हमारे ब्रजसों दई प्रेमकी फाँसी ॥ तुमहो बडे योगके पालक संगलिए कुविजासी । सूरदास सोईपै जानै जाउर लागै गासी ॥२८॥ मारू ॥ योग विधि मधुवन सिखिअहिजाइ । मन वच क्रम शपथ सुनि ऊधो संगहि
चलौ लिवाइ ॥ सब आसन रेचक अरु पूरक कुंभक सीखेपाइ । विन गुरुनिकट संदेशन कैसे यह औगाह्मो जाइ । हम जो करत देखिहँ कुविजहि तेई करव उपाइ। शृद्धा सहित ध्यान एकहि सँग कहत जाउ यदुराइ ॥ सूर सु प्रभुकी जापर रुचिहै सो हम करिहैं आइ । आज्ञा भंग करैं हम क्योंकर जो पतिव्रत न नशाइ ॥२९॥ धनाश्री ॥ योग संदेशो बंजमें लावता थाके चरण तुम्हारे ऊधो बार बारके धावत ॥ सुनिहै कथा कौन निर्गुणकी रचि पचि बात बनावत । सगुन सुमेर प्रगंट देखियत तुम तृण की ओट दुरावत ॥ हम जानत परपंच श्यामके वातनहीं वौरावत । देखी सुनी
न अवलगि कबहूं जल मथि माखन आवत ॥ योगी योग अपार सिंधुमें ढूंढेहूं नहिं पावत । इहां हरि प्रगट प्रेम यशुमतिके ऊखल आप बँधावत ॥ तुम चुपकरिरहौ ज्ञान ढकि राखो कतहो विरहं बढ़ावत । नंदकुमार कमलदल लोचन कहिको जाहि नभावताकाहेको विपरीत बात कहि
सबके प्राण गँवावत । सोहं सकित सूर अवलनिको जिहि निगम नेति यशगावत ॥३०॥ अथ मन अवस्थावर्णनं ॥ मलार ॥ मधुकर कहि कैसे मन गानै । जिनके एक अनन्य व्रत सूझै क्यों दूजो
उर आने ॥यहतौ योग स्वाद अलि ऐसो पायसुधा खरिसानै । कैसे धौं यह बात पतिव्रतं सुनि शठ पुरुष बिरानै ॥ जैसे मृगिअन ताकि बधिक हग करकोदंड गहि तानीहिंसाकरि पोषत तन मन सुख शिरअपराध नआनै ॥ बडे विचित्र कुबिजाके रंगरंगे हम निर्गुण लिखि ठाने । सूरश्याम निर्गुण रति मानी मधुप प्राण जिनि छान ॥३१॥मलार ॥ कहालौं राबै हिय मनधीरासुनहु मधुप अपं ने इन नैनन अनदेखे बलवीर।घर आँगन नसुहात रैनि दिन विसरे भोजन नीरादाहत देह चंद्र चं दनहै अरु वह मलय समीर । पुनि पुनि उहै सुरति आवति चित चितवत यमुनातीरासूरदास कैसे
बिसरतहै सुंदर श्याम शरीर ॥३२॥ केदारो ॥ विनहरि क्यों राखें मनधीर । एकबेर हरि दरश देखा बहु सुंदर श्याम शरीर ॥ तुम जो दयालु दयानिधि कहियत जानतहो परपीर । विछुरे प्राण नाथ ब्रज अवहीं कत हम कत यदुवीरमित अपयश आनहु शिर अपने कठिन मदनकी पी।सूरदास
प्रभु मिलन कहत हैं रवितनयाके तीस ॥३३॥ नट ॥ मेरो मन अनत कहा सचुपावै । जैसे उडि जहा
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सूरसागर।
