पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६१९

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- ॥ (५२६) पियूष नयनन भार पीज।।जाको अयन जल मे तेहि अनल कैसे भावै ।सुरज प्रभु गुणनिधान निर्गु. ण क्यों गावै॥२४॥ मलार ॥ मधुकर श्याम हमारे ईश। तिनको ध्यान धरै निशि वासर औरहि नवै नशीश।। योगिन जाइ योग उपदेशहु जिनके मन दश बीस । एकै चित एके वह मूरति पलन लगे दिन तीस ॥ काहेको निर्गुण ज्ञान गनत हो जित तित डारत खीस । सूर हृदय में वसत निरंतर त्रिभवन पति जगदीस॥२५॥ सोरठ योगकी गति सुनत मेरे अंग आगि वड़ोसुलगि सुलगि हम ज रतिही तुम आनि पूँकि दई ॥ भोग कुविजा कूवरी सँग कौन बुद्धि भई । सिंह भष तजि चरत तिनुका सुनी बात नई॥ध्यान धरत नटरत मूरति त्रिविध ताप तई।सूर हरिकी कृपा जापर सकल सिद्धिमई ॥२६॥ मलार ॥ मधुकर रह्यो योगलौं नातौकतहि बकत बेकाम काजबिन होहि न ह्यांते हातौ ॥ जब मिलि मिलि मधुपान कियौहौ तबतू कहिधौं कहातौ । अब आयो निर्गुण उपदेश नसो नहिं हमहिं सुहातो। काचेगुण ज्यों तनुले वैधौ लै वारिजको तातो। मेरेजानि गह्यो चाहता फेरिकि मैगलमातो। यह लैदेहु सूरके प्रभुको आयो योग जहातौ ॥ जब चहिहै तब मांगिपठेहै जोकोउ आवत जातो ॥२७॥ सारंग ॥ उधो योग किधौं यह हाँसी । कीनी प्रीति हमारे ब्रजसों दई 'प्रेमकी फाँसी ॥ तुमहो बडे योगके पालक संगलिए कुविजासी । सूरदास सोईपै जानै जाउर लागै गासी॥२८॥मारूपयोग विधि मधुवन सिखिअहिजाइ । मन वच क्रम शपथ सुनि ऊधो संगहि चलौ लिवाइ ॥ सब आसन रेचक अरु पूरक कुंभक सीखेपाइ। विन गुरुनिकट संदेशन कैसे यह औगाह्मो जाइ । हम जो करत देखिहँ कुविजहि तेई करव उपाइ। शृद्धा सहित ध्यान एकहि सँग कहत जाउ यदुराइ ॥ सूर सु प्रभुकी जापर रुचिहै सो हम करिहैं आइ । आज्ञा भंग करैं हम क्योंकर जो पतिव्रत न नशाइ॥२९॥धनाश्री|| योग संदेशो बंजमें लावता थाके चरण तुम्हारे ऊधो.. बार बारके धावत ॥ सुनिहै कथा कौन निर्गुणकी रचि पचि बात बनावत । सगुन सुमेर प्रगंट देखियत तुम तृण की ओट दुरावत ॥ हम जानत परपंच श्यामके वातनहीं वौरावत । देखी सुनी न अवलगि कबहूं जल मथि माखन आवत ॥ योगी योग अपार सिंधुमें ढूंढेहूं नहिं पावत । इहां हरि प्रगट प्रेम यशुमतिके ऊखल आप बँधावत ॥ तुम चुपकरिरहौ ज्ञान ढकि राखो कतहो विरहं बढ़ावत । नंदकुमार कमलदल लोचन कहिको जाहि नभावताकाहेको विपरीत बात कहि सबके प्राण गँवावत । सोहं सकित सूर अवलनिको जिहि निगम नेति यशगावत ॥३०॥ अथ मन अवस्थावर्णनं ॥ मलार ॥ मधुकर कहि कैसे मन गानै । जिनके एक अनन्य व्रत सूझै क्यों दूजो उर आने ॥यहतौ योग स्वाद अलि ऐसो पायसुधा खरिसानै। कैसे धौं यह बात पतिव्रतं सुनि शठ पुरुष बिरानै ॥ जैसे मृगिअन ताकि बधिक हग करकोदंड गहि तानीहिंसाकरि पोषत तन मन सुख शिरअपराध नआनै ॥ बडे विचित्र कुबिजाके रंगरंगे हम निर्गुण लिखि ठाने। सूरश्याम निर्गुण रति मानी मधुप प्राण जिनि छान॥३॥मलार।कहालौं राबै हिय मनधीरासुनहु मधुप अपं ने इन नैनन अनदेखे बलवीर।घर आँगन नसुहात रैनि दिन विसरे भोजन नीरादाहत देह चंद्र चं दनहै अरु वह मलय समीर।पुनि पुनि उहै सुरति आवति चित चितवत यमुनातीरासूरदास कैसे बिसरतहै सुंदर श्याम शरीर॥३२॥ केदारो॥ विनहरि क्यों राखें मनधीर । एकबेर हरि दरश देखा बहु सुंदर श्याम शरीर ॥ तुम जो दयालु दयानिधि कहियत जानतहो परपीर । विछुरे प्राण नाथ ब्रज अवहीं कत हम कत यदुवीरमित अपयश आनहु शिर अपने कठिन मदनकी पी।सूरदास प्रभु मिलन कहत हैं रवितनयाके तीस॥३३॥ नट ॥ मेरो मन अनत कहा सचुपावै । जैसे उडि जहा.