पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६२०

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1- - - देशमस्कन्ध-२० (६२७.) . जको पंछी उडि जहाज पर आवैजिहि मधुकर अमृत रस चाख्यो क्यों करीलफल भाव।सूरदास प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै॥३४॥सारंगामनतो मथुराही जो रह्योतिवको गयो.वहार नहिं आयो गहे गुपाल गह्यो ॥ राख्यो रूप चुराइ निरंतर सो हरि शोधु लह्यो । आए और मिलावन उधो मनदै लेहु मरयो । निर्गुण साटि गुपालहि माँगत क्यों दुख जात सह्यो । यह तनु यहि आधार आजुलगि ऐसीही निवहो ॥ सोई लेते छुडाइ सूर अव चाहत हृदय दह्यो ॥३६॥ सारंग ॥ कहा भयो हार मथुरा गए। अब अलि हरि कैसे सुखपावत तनुदोउ भांति भए ॥ इहां अटक अति प्रेम पुरातन वहां अति नेह नए । उहां सुनियत नृप भेप इहां दिन देखिअत वेणुलए।कहा हाथ परयो शठअन्रके यह ठग ठाटठए । अब क्यों कान्ह रहत गोकुल विन योगनके सिखए । राजा राज्यकरौ गृह अपने माथे छत्र दए । चिरंजीव रही सूर नंदसुत जीजत मुख चितए ॥३६॥ अपनीसी कठिन करत मन निशि दिन । कहि कहि कथा मधुप समुझावत तदपि न रहत नंद नंदनविन ॥ श्रवणसँदेश नयन वरपत जल मुख बतियां कछु और चलावत ! अनेकभांति चित धराति निठुरता सवतजि सुरति उहै जिय आवत ॥ कोटिस्वर्ग सम सुखउ न मानत हरि समीप समता नहिं पावत । थकित सिंधु नौकाके खग ज्यों फिरि फिरि फेरि वहै गुणगावत ।। जेजे बात ॥ विचारत अंतर तेइ तेइ अधिक अनल उर दाहत । सूरदास परिरहि नसकत तन वारक बहुरि ॥ मिलेहै चाहत॥३७॥मधुकर ह्यां नाहिंन मन मेरोगयो जु संग नंदनंदनके बहार नकीन्हौं फेरोाउन नैनन मुसकानि मोलले कियो परायो चेरो। जाके हाथ परयो ताहीको विसरयो वास वसेरो। को सीखै ता विनु सुन सूरज योगजकाहू केरो । मंदो परयो सिधाउ अनतले यही निर्गुण मत तेरो॥३८॥मुक्तिआनि मंदेमो मेली समुझि सगुन लै चलेन ऊधो यह तुमपै सब पूजी अकेली।कै लैजाहु अनतही वेचो के लेराख जहाँ विपवेलीयाहि लागि को मरै हमारेवृंदावन चरणनसों ढेली। धरे शीश घर घर डोलतहो एकै मति सव भई सहेली। सूरदास गिरिधरन छबीलो जिनकी भुजा कंठगहि खेली।।३९॥ऊधो मनतो एकै आहिले हरिसंग सिधारे ऊधो योग सिखावत काहि ॥ सुनि शठनीति प्रसून रस लंपट अवलनिकी पांचाहिाअव काहेको लोन लगावत विरह अनलके दाहि ।। परमारथ उपचार कहतहो विरह व्यथाहै जाहि । जाको राजरोग कफ वाढत दह्यो खवावत ताहि॥ अवलगि अवधि अलंबन करि करि राख्यो मनहि सवाहि । सूरदास या निर्गुण सिंधुहि कौन सकै अव गाहि॥४०॥ऊधो मन न भए दशवीसाएक हुतोसो गयोश्यामसँग को अपराधे ईशाइंद्री सिथिल भई केशोविन ज्यों देही विन शीशाआशा लगी रहत तनु श्वासा जीजो कोटि वरीस।तुमतौ सखा श्याम सुंदरके सकल योगके ईशासूरदास वा रसकी महिमा जो पूँछ जगदीश ॥४१॥ ऊधो जो मन होत वियो।तो तुम्हरे निर्गुण को दीजै सो विधना न दियो। एक जु हुतो मदन मोहनकी सो छवि छोनि लयो । अव वा सूपराशि विनु मधुकर कैसे परतु जियो । जो तुम करो सोई शिर ऊपर सूरश्या म पठयो । नाहिन मीन जीवत जल वाहर जो घृत में सजियो॥४१॥ ऊधो यह मन और न होई । पहिलेही चढि रह्यो श्यामरंग छूटत नहिं देख्यो धोई ॥ कै तुम वचन बडे अलि हमसों सोई कह जो मूल । करतकेलि वृंदावन कुंजन वा यमुनाके कूल ॥ योग हमहिं ऐसो लागत ज्यों तो चंपेको फूल । अव क्यों मिटत हाथकी रेखें कहौ कौन विधि कीजै । सूरश्याम मुख आनि देखावहु जहि देखे दिन जीजै ॥४३॥ मधुकर मो मन अधिक कठोर । विगसि नगए कुंभ काचेली विछुरत नंद किसोर ।। प्रेम वनिज कीन्हो हुतो नेहनफा जियजानि । ऊधो अब उलटी भई प्राणपूजिमैं हानि ॥