पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६२३

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- सूरसागर। ... कपट कुटिल वायस छाल फिरि नहिं वह वन जाति । तैसेही रसकेलि रस अचयो वैठि एकही पांति ॥ सुत हित योग यज्ञव्रत कीजतु बहुविधि नीकी भांति । देखहु अहि मन मोह मयातजि ज्यों जननी जनि खातिं ॥ तिनको क्यों मन विषमें कीजै अवगुणलौं सुखसाति । तैसे सूर सुने यदुनंदन वजी एकरस तांति ॥६॥ धनाश्री ॥ श्याम सखी कारेहू में कारे। तिनसों प्रीति कहाकहि कीजै मारग छोडि सिधारे ॥ लोक चतुर्दश विभव कहतहै पटुः पत्र जल न्यारे । सर वरत्यागि विहंग उडे ज्यों फिरि पाछे न निहारे । तव चितचोर भोर ब्रजवासिन प्रेम नेम व्रत टा। लै सर वसनहि मिले सूरप्रभु कहिअत कुलट विचारे ।। ६४ ॥ नट ॥ ऐसे नंदराइके वारे। इतनिन जनि पतियाहु सखीरी जितनेहैं तनुकारे । खेलत रंग संग वृंदावन निमिष नहोत निनारे । पहिले सुख दारुणभए हमको देइ जग एदुखभारे ॥ उर ऊपर भीजत सारंग रिपु नैन नीर बहुढारै । सूर दास प्रभु वेगि मिलहु किम टरत नहीं गुणटारे।।६६||सारंगामधुकर यह कारेकी रीति । मनदे हरत. परायो सरवस करै कपटकी प्रीति ॥ ज्यों षटपद अंबुजके दलमें वसत निशारतिमानि । दिनकर उए अनत उडिवैठे फिरि न करत पहिचानि ॥ भवन भुजंग पिटारे पाल्यो.ज्यों जननी जियतात । कुल करतूति जाति नहिं कबहूँ सहज सु डसि भजिजात ॥ कोकिल काग कुरंग श्याम घन. हमाहि नदेखेभावै । सूरदास अनुहारि श्यामकी छिनु छिनु सुरति करावै॥६६॥मलारामधुकर देखि श्यामतनु तेरो। या मुखकी सुनि मीठी बातें डरपतुहै मनमेरो । कतए चरण छुअत रसलंपट वरजतही वेकाजापरसत गात श्रवत कुच कुंकुम यह करी कछुलाज ॥ बुधि विवेक वल वचन चातुरी सरवस चितै चुरायो। ऐसोधौं उन कहा विचारो जालगि तू ब्रजआयो । अव कहि कहि आशा गावतहो हम आगे एगीत । सूर इते परि द्वार कहाहै जो परि त्रिगुण अतीत॥६७॥ मलार ॥ मधुप तुम दिखियतहो अतिकारे । कालिंदतिट पार वसतहो सुनियत श्याम सखारे ॥ मधुकर चिकुर भुअंग कोकिला अवधिनहीं दिनटारे । वै अपने मुखहीके राते जियत उहै उनिहारे । कपटी कुटिल निठुर निर्मोही दुखदै दूरि सिधारे । वारक वहरि कबहुँ आवहुगे नैननि साधनि वारे। उनकी सुनै सुआपु विगोवै चितचोरत वटपारे । सूरदास प्रभु क्यों मनमानै सेवक करत ननारे॥६८॥सारंगाभूलतही कत मीठी वातानाएतो अलि उनहीके संगी चंचल चित्त सांवरे गातानि वै मुरली ध्वनि जगमन मोहत इनकी गुंज सुमन मधुपातनि । एषटपद वै द्वैपद चतुर्भुज काहूभां ति भेदनहिं भ्रातनि ॥ वै नव निशि मानिनि गृहवासी. ए अब शतनिशि नवजल जातनि। वै उठि प्रात अनत मन रंजत ए उडिकरत अनत रसरातनि ॥ स्वारथी निपुण सद्य रस भोगी जिनि पतिआहु विरह दुख. दातनि । वे माधव ए मधुप सूर कहि दुहुँमे नहिंन कोउ घटि घातनि॥ ६९ । मलार ॥ विलग मतिमानो ऊधो प्यारे । वह मथुरा काजरकी उवरी जे आवै तेकारे ॥ तुम कारे सुफलकसुत कारे कारे मधुप भवारे। तिनहूँमांझ अधिक छवि उपजत कमलनैन मणिपारे।मानो नीलमांट में बोरे लै यमुना जुपखारोतागुणश्याम भई कालिंदी सूरश्याम गुणन्यारे ॥७॥ऊधो तुम सब साथी भोरे। मेरे कहे विलगु मानहुगे कोटि कुटिल ले जोरै ॥ वै अक्रूर कूर कृत जिनके रीते भरे भरे गहि ढोरे। आपुन श्याम श्याम अंतर मन श्यामकाममें वोरे। तुम मधुकरनिर्गुण निज नीके देखे फटकि पछोरे। सूरदास कारणके संगी कहा पाइयत गोरे॥७१॥भोपाली।। ऊधो हम दूवरी वियोग । प्रीतम हुते सोउ गए मधुबन रहे | वटाऊ लोग ॥ जो तुम वूझो व्यथा हमारी कहे वनै तुम आगे। देह विहार श्रृंगार नभावे मनतरसे