पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६२४

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दशमस्कन्ध-१० हरि कानकारीघटादेखि अँधियारी सारंग शब्द नभावैदिवस रैनि मोहिं विरह सतावै कब गोपाल घरआवै । सूरदास स्वामी मनमोहन अब करि गए अनाथ । मन क्रम वचन वहांई बसतहैं जहां वसत यदुनाथ।।७२॥ सोरठ ॥ ऊधो यह हरि कहा करयो। राजकाज चित दियो सांवरे गोकुलक्यों विसरयो । कत गिरिधरयो इंद्र मद मेट्यो कत वै सुख उपजाए । अब कह निठुर भए अवलनि पर लिखि लिखि योग पठाये ॥ परमप्रवीन सकल विधि सुंदर ताते यह कहिआवत । हमरी कहा चलै सुन सूरज मात पिता विसरावत ॥७३॥ नट ॥ यदपिमैं बहुतै यतनकरे । तदपि मधुप हरि प्रिया जानिक काहू न प्राणहरे ॥ सौरभ युत सुमनन लै निजकर संतत सेज धरे । सन्मुख सहति दरश शाश सजनी तिहिहुं न अंग जरे ॥ मधुकर मोर कोकिला चातक सुनि सुनि श्रवणभरे । सादरलै निरखति रतिपति हग नैक न पलक परै ।। निशिदिन रटत नंदनंदनको उरते छिन नटरे। अति आतुर गुणसहित चमू सजि अंगन सरस चिरे॥ जानत नहीं कौन गुण यहितन जाते सब विडरे। सूरदास सकुचन श्रीपतिकी सुभटन वल विसरे।।७४।केदारोजिहिदिन तजी ब्रजकी भीराकहो ए अलि लेखि तुमसों सखा सुंदर धीर ॥ काम नृप शशि नेव अवलनि दूत दुर्ग समीर । सजै सेना विपुल वादर वदत वंदीकीर । लता लघु जनु कुसुम कर सर कली कोटि तुणीर । वरुनवान वसंत करले वधतहै आमीर ॥ मध्य दुमहै फूल मानो कवच कंचनचीर ॥ करि कुंभ कुंजर विटप भारी चमर चारु मयीर। चमू चंचल चंचल नाहिंन रहीहै पुर तीर ॥ समर मारुहु कीटकी रट सहत त्रिय आधीर । जन्म जातक व्याध व्यापक कहो कासों पीर ॥ सूर रसिक शिरोमणिहि विन जलत यमुना नीर ॥७॥ कान्हरो ॥ हरि विछुरनकी शूल नजाई । बलि बलि जाउं मुखादिको वह मूरति चित रही समाई। एक समय वृंदावन महियां गहि अंचल मेरी लाज छिडाई । कबहुँक रहसि देत आलिंगन कबहुँक दौरि बहोरत गाई ॥ वे दिन उधो विसरत नाही अंबर हरे यमुनतट जाई । सूरदास स्वामी गुण सागर सुमुरि सुमिरि राधे पछिताई ॥ ७६ ॥ नट ॥ मोहन माँग्यो अपनो रूप। यह ब्रज वसत अचे तुम बैठी ताविन उहां निरूप ॥ मेरोमन मेरो अलि लोचन लै जु गये धुपि धूप। हमसों बदलो लेन उठिधाए मनो धारिकर सूप ॥ अपनो काज सँवार सूर सुनि हमर्हि बतावत कूप । लेवा देइ धराधर में है कौन रंक को भूप ॥ ७७ ॥ सारंग ॥ पठवत योग कछू जिय लाजन । तव ज्यों जतन तंत्र मृग मोहत अब कपटरूपकी बाजन ॥ जिय गहि लई कूरके सिखए मोह होत कहुँ राजन । सब सुधि परी वचन कन ढोए ढके रहो मुखभाजन ॥ यह नृपनाति रह्यो कौनेहु युग नेह होत जस आनन । ताहू तजी सुरति नहिं आवति दुखपाए जन माजन ॥ करि दासी दुलहिनि भयो दूलह फिरत व्याहके साजनासूर बडे भुव भूप कंस हते वा कुबिजाके काजन||७८॥ ॥ मलार ॥ संदेशनि विरह व्यथा क्यों जाति । जवते दृष्टिपरी वह मूरति कमल वदनकी कांति ॥ अवतो जिय ऐसी बनिआई कहो कोउ केहु भांति । जोइ वह कहै सोई सो नुनो सखी युगवर रौनि विहाति । जौलौं न भेटौं भुजभरि हरिको उर कंचुकी न सोहाति । सूरदास प्रभु कमलनयन विनु तलफति अरु अकुलाति ॥ ७९ ॥ मलारसंदेशनि क्यों निघदति दिन राति।कबहुँक श्याम कमलदल लोचन कव मिलि हैं उहि भांति ॥ खंजरीट मृग मीन सवै मिलिं उपमाको अकुलाति। बार बार मैं वरजति ग्वालनि अपने मारग जाति॥ सहस भांति अर्पितकी रन सब एको चित न समात । सूरदास प्रभु संततहितते कहे सुनत नहिं वाता॥८॥गोपालहि लै आवहू मनाइ । अबकी। - - -