हरि कानकारीघटादेखि अँधियारी सारंग शब्द नभावैदिवस रैनि मोहिं विरह सतावै कब गोपाल घरआवै । सूरदास स्वामी मनमोहन अब करि गए अनाथ । मन क्रम वचन वहांई बसतहैं जहां वसत यदुनाथ ॥७२॥ सोरठ ॥ ऊधो यह हरि कहा करयो। राजकाज चित दियो सांवरे गोकुलक्यों विसरयो । कत गिरिधरयो इंद्र मद मेट्यो कत वै सुख उपजाए । अब कह निठुरभए अवलनि पर लिखि लिखि योग पठाये ॥ परमप्रवीन सकल विधि सुंदर ताते यह कहिआवत । हमरी कहा चलै सुन सूरज मात पिता विसरावत ॥७३॥ नट ॥ यदपिमैं बहुतै यतनकरे । तदपि मधुप हरि प्रिया जानिक काहू न प्राणहरे ॥ सौरभ युत सुमनन लै निजकर संतत सेज धरे । सन्मुख सहति दरश शाश सजनी तिहिहुं न अंग जरे ॥ मधुकर मोर कोकिला चातक सुनि सुनि श्रवणभरे । सादरलै निरखति रतिपति हग नैक न पलक परै ॥ निशिदिन रटत नंदनंदनको उरते छिन नटरे । अति आतुर गुणसहित चमू सजि अंगन सरस चिरे ॥ जानत नहीं कौन गुण यहितन जाते सब विडरे। सूरदास सकुचन श्रीपतिकी सुभटन वल विसरे ॥७४॥ केदारो ॥ जिहिदिन तजी ब्रजकी भीराकहो ए अलि लेखि तुमसों सखा सुंदर धीर ॥ काम नृप शशि नेव अवलनि दूत दुर्ग समीर । सजै सेना विपुल वादर वदत वंदीकीर । लता लघु जनु कुसुम कर सर कली कोटि तुणीर । वरुनवान वसंत करले वधतहै आमीर ॥ मध्य दुमहै फूल मानो कवच कंचनचीर ॥ करि कुंभ कुंजर विटप भारी चमर चारु मयीर। चमू चंचल चंचल नाहिंन रहीहै पुर तीर ॥ समर मारुहु कीटकी रट सहत त्रिय आधीर । जन्म जातक व्याध व्यापक कहो कासों पीर ॥ सूर रसिक शिरोमणिहि विन जलत यमुना नीर ॥७५॥ कान्हरो ॥ हरि विछुरनकी शूल नजाई । बलि बलि जाउं मुखादिको वह मूरति चित रही समाई । एक समय वृंदावन महियां गहि अंचल मेरी लाज छिडाई । कबहुँक रहसि देत आलिंगन कबहुँक दौरि बहोरत गाई ॥ वे दिन उधो विसरत नाही अंबर हरे यमुनतट जाई । सूरदास स्वामी गुण सागर सुमुरि सुमिरि राधे पछिताई ॥ ७६ ॥ नट ॥ मोहन माँग्यो अपनो रूप। यह ब्रज वसत अचे तुम बैठी ताविन उहां निरूप ॥ मेरोमन मेरो अलि लोचन लै जु गये धुपि धूप । हमसों
बदलो लेन उठिधाए मनो धारिकर सूप ॥ अपनो काज सँवार सूर सुनि हमर्हि बतावत कूप । लेवा देइ धराधर में है कौन रंक को भूप ॥७७॥ सारंग ॥ पठवत योग कछू जिय लाजन । तव ज्यों जतन तंत्र मृग मोहत अब कपटरूपकी बाजन ॥ जिय गहि लई कूरके सिखए मोह होत कहुँ राजन । सब सुधि परी वचन कन ढोए ढके रहो मुखभाजन ॥ यह नृपनाति रह्यो कौनेहु युग नेह होत जस आनन । ताहू तजी सुरति नहिं आवति दुखपाए जन माजन ॥ करि दासी दुलहिनि भयो दूलह फिरत व्याहके साजनासूर बडे भुव भूप कंस हते वा कुबिजाके काजन ॥७८॥ ॥ मलार ॥ संदेशनि विरह व्यथा क्यों जाति । जवते दृष्टिपरी वह मूरति कमल वदनकी कांति ॥ अवतो जिय ऐसी बनिआई कहो कोउ केहु भांति । जोइ वह कहै सोई सो नुनो सखी युगवर रौनि विहाति । जौलौं न भेटौं भुजभरि हरिको उर कंचुकी न सोहाति । सूरदास प्रभु कमलनयन विनु तलफति अरु अकुलाति ॥७९॥ मलार ॥ संदेशनि क्यों निघदति दिन राति । कबहुँक श्याम कमलदल लोचन कव मिलि हैं उहि भांति ॥ खंजरीट मृग मीन सवै मिलिं उपमाको अकुलाति । बार बार मैं वरजति ग्वालनि अपने मारग जाति ॥ सहस भांति अर्पितकी रन सब एको चित न समात । सूरदास प्रभु संततहितते कहे सुनत नहिं वाता ॥८०॥ गोपालहि लै आवहू मनाइ । अबकी
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दशमस्कन्ध-१०
