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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६२६

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दशमस्कन्ध-१०


जब उइ दामन ऊखल बाँधे वदन नवाइ रहे । चुभि जुरही नवनीत चोर छवि क्यों भूलति ज्ञानकहै । तिनसों ऐसी क्यों कहि आवति जो कुल त्रास सहै । सूरझ्याम गुणरसनिधि तजिकै क्यों घटि नीर वहै ॥९२॥ उद्धववचन ॥ नट ॥ जवलागे ज्ञान हृदय नहिं आवै।तोलागि कोटि जतन करै कोऊ विन विवेक नहिं पावै ॥ विना विचार सबै सुपनोसो सो मैं देख्यों जोई । नाना दारु वसै ज्यों पावक प्रगट मथते होई । तुम इक कहत सकल घट व्यापक अरु सबहोते नारे । नख शिखलों तनु जरत निशादिन निकास करत किन सोरे ॥ बातें कहत सवे सांचोसी मुँह में लेहो तुरसी । सरसो ओषध हमाह बतावत ज्या पितज्वर पर गुरसी ॥९३॥ गोपीवचन ॥ सारंग ॥ तुम जो कहत हरि हृदय रहतहैं । कैसे होइ प्रतीत मधुप सुनि ए इतनी जु सुनतह ॥ वासर नि कठिन विरहागिन अंतर प्राण दहत हैं । प्रजरि प्रजरि मनु निकसि धूम अति नैनन नीर वहतहैं ॥ कठिन अवज्ञा होत देह दुख मर्यादा न गहतहैं । कहे व क्यों मानै मन सूरज ए बातें जु कहतहैं ॥९४। सारंग ॥ जोपै हृदय माँझ हरी । तोपै इती अवज्ञा उनपै कैसे सही परी ॥ तव दावानल दहन नपायो अब यहि विरह जरी । उरते निकसि नंद नंदन हम शीतल क्योंनकरी ॥ दिनप्रति इंद्र नैन जल वरपत घटत न एक घरी । अतिही शीत भीत भीजत तनु गिरि कर क्यों न धरी ॥ कर कंकन दर्पण लै देखो इहि अति अनख मीस्यों जीवहिं सुयोग सुनि सूरज विराहान विरह भरी ॥९५॥ सारंग ॥ तुम घट हीमो श्याम वताए । लीजै सँभारि सकल सुख अपने रास रंग जे पाए ॥ जो समहष्टि आदि निर्गुण पद तो कत चित्त चोराए । मोहन वदन विलोकि मानि रुचि हाँस हार कंठ लगाए ॥ हम मतिहीन अजान अल्प भवमति तुम अनभी पद ल्याए । सूरदास तेहि पनिज कवन गुण मूलह मांझ गवाँप ॥९६॥ सारंग ॥ इनि बातनके मारे मरियत । निर्गुण ज्ञान मधुपले आए विनि गोपाल कैसे निाही तर यत ॥ सबै अटपटी कहरे मधुकर सुनि देखी मधुवनकी गति । कौन हाल हमरे ब्रजवतित जा नत नहीं विरहकी रीति।बुझी अगिाने बहुरो सुलगाई अंतर्गति विरहानल जारत । सूरदास स्वामी सुखसागर मिलि काहेन तनु ताप निवारत ॥९७॥ नट ॥ बातें कहत बनाइ बनाइ । रंचक विरह हुते यह गोकुल मधुकर मेट्यो आइ ॥ कमलनैनकी मोहन लीला रहति रहीं गण गाद । वोछी पूँजी हरै ज्यों तस्कर रंक मरे पछिताइ ॥ भली करी हमको लै आए पठये योग सिखाइ । सूरदास स्वामी यह घाली निर्गुण कथा सुनाइ ॥९८॥ केदारो ॥ ऐसो योग न हो । सनिकै वचन तुम्हारो ऊधो नैना आवत रोई ॥ कुटिल कुंतल मुकुट कुंडल रही छवि छवि पोई ॥ सर प्रभु विन प्राण रहै नहिं कोटि करे किन कोई ॥९९॥ सारंग ॥ मधुकर को संदेशा सिधारो । विनु उपदेश सहजही योगी सुधार रह्यो ब्रजसारो ॥ जाको ध्यान धरतो पति योग युक्ति करिहारो । सो हरि वसत सदा हृदय में नेक टरत नहिं टारो ॥ इह उपदेश आपनो ऊधो राखोढाँप सवारो । सूरश्याम जानत भले जिय की जो निज हितू हमारो ॥३२००॥सारंग ॥ ऊधो हमैं कहा समुझावहु । पशु पंछी सुरभी व्रजकी सब देखि श्रवण सुनि आवडतृण न चरत गोपिवत न सुतपै ढूंढत वन वन डोलें । अलि कोकिल देआदि विहंगम भीत भयानक बोलें ॥ यमुनाभई श्याम श्याम विनु अंध छीन जे रोगी । तरुवर पत्र वसन न सँभारत विरह वृक्ष भए योगी ॥ गोकुलके सब लोग दुखितहैं नीर विना ज्यों मीन । सूरदास प्रभु प्राण नछूटत अवधि आशमें लीन ॥१॥ नट ॥ ऊधो अवधि आशगई। योगकी गति सुनत मेरे अंग आगिवई ॥ धरत हृदय नटरत मूरति तिहूंताप तई । हम सुलगि सुलगि उठतही तुम फूंकि आनि दई ॥ सिंह गज