हम तुमको दीन्यो । सूरदास ज्यों विप्र नारि पर करहि वंदना कीन्यो ॥११॥ ज्ञान योग अव लनि अहीरिसों कहतन आवै लाज । ऊधो सखा श्यामके कहियत पठए होवे काज ॥ जालायक जो बात होइ सो तैसिये तासों कहिये । विना नाद संगीत सुधानिधि मूढहि कहा सुनइये ॥ हम जानीजु विचार पठाए सखा अंग परवीन । सुखदैहैं मोहन कहि बतियां करत योग आधीन ॥ मुरली अधर मोरके पांखें जिन इह मूरति देखि । सोव कहा जाने निर्गुणको सोहै भीति चित्र अवरेखि ॥ पालागों तुम बड़े सयाने अनवोलेही रहियो । सिखये योग सूरके प्रभुको उनहींसों फिरि कहियो ॥१२॥ धनाश्री ॥ उधौ काहेको भक्त कहावत । जोपै योग लिखि पठयो हमको तुमहु नभस्म चढावत ॥ सींगी मुद्रा भस्म अधारी हमहीको कहा सिखवत । कुविजा अधिक श्यामकी प्यारी ताहि नहीं पहिरावत । यहतो हमको तवहि न सिखयो जयते गाइ चरावत । सूरदास प्रभुको कहियो अब लिखि लिखि कहा पठावत१३॥ नट ॥ ऊधो न हम विरहिनि न तुम दास । कहत सुनत घट प्राण रहतहैं हरि तजि भजहु अकास ॥ विरही मीन मरै जल विहुरे छोडि जीवनकी आस । दासभाव नहिं तजत पपीहा वरुसहि रहत पियास ॥ पंकज परम कमल में विरहत विधि कियो नीर निरास । राजिवरविको दोप न मानत शशिसों सहज उदास ॥ प्रगट प्रीति दशरथ प्रति पाली प्रीतमको वनवास । सूरश्याम सों पतिव्रत कीन्हों छांडि जगत उपहास ॥१४॥ ऊधो विनती सुनो इक मेरी । तबके विछुरि गए नँद नंदन कामके दली घेरी ॥ देखो हृदय विचारि तुमहिं अव प्रीति रीति सव केरी । जहां जाकी निधि तहां सब सोपे ज्यों मृगनाद अहेरी । वैद
शमास रतन रस वसते शशि विन रैनि अँधेरी । सूरदास स्वामी कव आवें वास करन जफेरी॥१५॥ सारंग ॥ मधुकर कहा प्रवीन सयाने । जानत तीनि लोककी महिमा अवलनि काज अयाने ॥ जे कच कनक कचोरा भरि भरि मेलत तेल फुलेल। तिन केशनको भस्म चढावत टेसू केसे खेल ॥ जिन केशन सवरोगहि सुंदर अपने हाथ विनाइ । तिनको जटा कहा नीकी कह कैसे कहि आइ ॥ जिन श्रवणन ताटक खुभी औ करनफूल खुटिलाऊ । तिन श्रवणन कश्मीरी मुद्रा लै लै चित्र झुलाऊ । भालतिलक अंजन चख नासा वेसरि नथमें फूली । ते सब तजि अलि
कहत मलनमुख उज्ज्वल भस्म खुली । जिहि मुख गीत सुभापित गावत कहति परस्पर गास । ता मुख मौन गहे क्यों जीजे छूटत ऊरध श्वास ॥ कंठ सुमाल हार मुक्ताके हीरा रत्न अपार । ताहू कंठ वाँधिवे कारण साँगी योग शृंगार ॥ कंचुकि छीन छीन पटसारी चंदन सरस सुछंद । अब कंथा एकै अति गुदरी क्यों उपजी मतिमंद ॥ ऊधो ऊधो सव पाला-देखो ज्ञान तुम्हार॥ । सूर सुप्रभु मुख फेरि देखिहँ चिरजीजै कान्ह हमारो ॥१६॥ हमतो दुहूं भांति फल पायो । जो गोपाल मिलें तो नीको नातो जगत यश गायो॥ कहा हम या गोकुलकी गोपी वरणहीन घटि जाति । कहँ वै श्रीकमलाके वल्लभ मिलि बैठी इकपांति । निगम ज्ञान मुनि ध्यान अगोचर सो भए घोष
निवासी । ता ऊपर अब कहाँ देखि मुक्ति कौनकी दासी ॥ योग कथा ऊधो पालागौं नाकहु वारंवार । सूरश्याम तजि और भजै जो ताकी जननी छार ॥१७॥ मारू ॥ मोहिं अलि दुहुँ भांति
फल होति । तब रस अधर लेत जो मुरली अब भइ कुविजा सौति ॥ तुम जो योग मत सिखवन आए भस्म चढावन अंग । इन विरहिनि में कहूं तू देखी सुमन गुहाए मंग ॥ कानन मुद्रा पहिरि मेखला धेरै जटा योग अधारी । इहां तरल तरिखना काके अरु तन सुखकी सारी ॥ परम वियोगनि रटत रौनि दिन धरिमनमोहन ध्यानातुमतौ चलो वेगि मधुवनको जहां योगको ज्ञान
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दशमस्कन्ध-१०
