पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(१०) सूरसागर-सारावली। करिहौं सुनि मारिच डरमान्यो । रामचन्द्रके हाथ मरूंगो परम पुरुप फल जान्यो ।। २६३॥ कपट कुरंग रूपधार आयो सीता विनती कीन्हीं। रामचन्द्र कर शायकलेके मारनकी विधि कीन्हीं ॥ २६४॥ मारयो धनुप वाणले ताको लक्ष्मण नामपुकारेव । लक्ष्मण नाम सुनत तहँ : आये अवसर दुष्ट विचारेव ॥ २६६ ॥ धरिकै कपट भेप भिक्षुकको दशकन्धर तहँ आयो। हरि लीन्हों छिनमें मायाकार अपने रथ बैठायो ॥ २६६ ॥ चल्यो भान गोमायु जंतु ज्यों लकै । हरिको भाग । इतने रामचन्द्र तहँ आये परमपुरुप बड़भाग ।। २६७ ॥ जब माया सीता नहि देखी जियमें भये उदास । पूंछनलगे राम द्रुमगन सों बहुत वढी दुखरास ॥ २६८ ॥ मारगमें.. जटायुखग देख्यो विकल भयो तनुहीन । विनती करी राम मैं तासों बहुत लड़ाई कीन ॥२६९॥ जब तनुतज्यो गृध्र रघुपति तब बहुत कम विधि कीनी । जान्यो सखाराय दशरथको अपनी निजगति दीनी ॥ २७ ॥ मारगमें कवंधीरपु मारयो सुरपति काज : सवारयो। पंपापुर हरि तुरत पधारे जलको दोप निवारयो । २७१ ॥शवरी परमभक्त रघुपति की बहुत दिनन की दासी । ताके फल आरोगे रघुपति पूरण भक्ति प्रकासी ॥ २७२ ॥ दीन मुक्ति निजपुरकी ताको तव रघुपति चले आगोसीता सीता विलपत डोलत परम विरहसों पागे। ॥२७३ ॥ रविनन्दन जब मिले राम को अरु भेटे हनुमान । अपनी बात कहा उन हरिसों वालि। बड़ो बलवान॥२७॥सप्तताल वेधन हरि कीन्हों वालि छिनको तारोदीन्हों राज राम रवि नंदन सब विधि काम सँवारो ॥२७॥ सप्तद्वीप के कपिल आये जुरी सेन अतिभारी। सीताकी सुधि लेनचले कपि ढूंढत विपिन मझारी ॥ २७६ ॥ जलनिधि तीरंगये सब कपि मिल सुन संपतिकी . वानी। लंकवसत सीतारिपु वनमें सव वानर यह जानी ॥ २७७॥ रामचरण कर सुमिरन मनमें चले पवनसुत धाय । रामप्रताप विघ्न सब मेटे पैठि नगर सुखपाय ॥ २७८ ॥ धरिलघुरूप | प्रवेशकियोकपिलंका नगर मँझार । रामभक्त निज जान विभीपण भेटेहार अकवार ॥ २७९ ॥ तव वाने सवभेद बतायो देखी कपि सबलंक । रामचरण धारहृदय मुदितमन विचरत फिरत । निशंक ॥२८०॥जाय अशोकवाटिका देखी दरशन सीता कीन्ह । कर दण्डवत बहुतं विनती || कर राम मुद्रिकादीन्ह ॥ २८३ ॥ सव संदेश कह्यो कपि सियप्रति सुनि हियमें धरि राख्यो।। राम संदेश कहेउ तब सीता जो बूझो सो भाख्यो । २८२ ॥ लागीभूख चले उपवनमें नानाविधि ॥ फल खायो। विटप उखार उजार विपिनको सवहिनको दरशायो ।। २८३ ।। सुनि पुकार निश्वर बहु आये कूदि सवन संहारे । इन्द्रजीत बलनिधि जब आयो ब्रह्मअस्त्र उन डारे ॥२८॥ तासों बँधे दशानन देखत चले पवनसुत धीरारावण बहुत ज्ञान समझायो कथ कथ कथा गंभीर॥२८॥ चले छुड़ाय छिनकमें तवहीं जारदई सब लंका कूदिचले गजवनको जयकर ज्यों मृगराज निशंक ॥ २८६ ॥ आये तीर समुद्र मिले कपि मिले आय जहँ राम । सुनि सुनि कथा श्रवण सीताकी पुलकित अति अभिराम।।२८७॥करि कपिकटक चले लंकाको छिनमें वांध्योसेताउतरगये पहुंचे लंकापै विजयध्वजा संकेत ॥ २८८॥ पठये बालिकुमार विनयकरि समझाये बहुवार । चित नहि धरो कालवश जान्यो फिर आयो सुकुमार ॥२८९ ॥ अशरणशरण उदार कल्पतरु रामचन्द्ररण.. धीर । रिपुभ्राताजान्यो जुविभीषण निश्चर कुटिलशरीर ॥२९० ॥ राखिशरण लंकेशकियो पुनि. जबःनिश्चर सब मारे । मायाकरी-बहुत नानाविधि सबको राम निवारे ।। २९१॥ कुंभकर्ण पुनि । इन्द्रजीत यह महावली बलसार । छिन में लिये सोख मुनिवर ज्यों क्षत्री बली आर ॥:२९२ । -