पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

.. 'सूरसागर। महानेहं विन तेरो ॥ ८९ ॥ सोरठ ।। के तुमसों छूटै लरि ऊधो कै रहिए गहि मौन । इक हमें जरें । जरे पर जारत बोलहुं वकुची कौन ॥ एक अंग मिले दोऊ कारे काको मन पतिआए । तुमसी होइ सो तुमसों वौले लीने योगहि आए।जा काहूको योग चाहिए सो ले भस्म लगावै । जिन उर ध्यान नंद नंदनको तहँ क्यों निर्गुण भावे ।। कहो संदेशं सूरके प्रभुकों यह निर्गुण अधियारो ।। अपनो बोयो आप लोनिये तुम आपहि निरुवारौ ॥९०॥केदारो। कहा रस वरिआईकी प्रीति । जो नगडै उर अंतर ऊधो भुसपर कीसी भीति।। नैन वैन अरु हृदय मिलत तब बाढत प्रेम प्रतीति । एदोउ हंस होत जब सन्मुख लेत मनहिं मन जीति ।। ऊधो यह संदेशो कहियो. मधुवन कैसी रीतिः । सूरदास सोई जन जाने गई जनु हिमही वीति ॥ ९॥ मलार ॥ जोपै इहै प्रीतिकी बातः । तो ऊधो तुम निकट रहत कतः निरखि सवारे गांत ॥ बात कहत भरिलेत नैनजलं सुरति करत अकुलातः । जो घट घट हरि रहत निरंतर तो कतहिं मधुपुरी जात ॥ सगुण प्रीति ऐसी प्रतिपालतं दुखित होतं तनुगात । तुम निर्गुणसों प्रीति करनको सूर समुझे पछितात॥९२।।सारंगों उधोजनि मधुवन तन देखो। कछुक दिवस औरो ब्रज वसिके जन्म सफल कार लेखो। कहा जाइ लेइहो हाँ जामें राजकाजकी वांत बालकिसोर कुमार निरखि मुख घर पर माखनखाता।तुम निर्गुणानित कहत निरंतर निगम नेति यह नीतिः। प्रगट रूप मदमत्त नयन क्यों छाँडै दरशन प्रीतिः॥ शिब विरांचे सनकादिक मुनि मन संतनजाको धावतः । सूरदास प्रभु गोप सुतन सँग गोधन वृद चरावत ॥ ९३॥ मलार ॥ ऊधो जीवनधन हम पैए। सोई होइ जोरचो विधाता और नदोष लगैए । कीजै कहा कहत नहिं आवै सोचि हृदयं पछिए । मोहनसों वर कुविजाः पायोहमको योग बतैए।आज्ञा होइ सोइ पै कीजै विनती इहै सुनेए । सूरदास प्रभु तृषा बढी अंति दरशन सुंधा-पियए ॥९४ ॥ केदारो ॥ उधो खरी जरी हरिके शुलनकी । कुंजः किलोल किये। वनहीं बन सुधि विसरी उन बोलनकीः॥ अरु यह प्रीति कहालौं वरणौँ या यमुना जल कूलनकी । वह छवि छाके अतिहैं दोऊ लोचन वहि गहि झुलनकी । सूरदास प्रभु दरशन दीजै अरु लीजें अनकूलनकी॥९॥ सारंग ॥ हरि विनु यह विधिहै ब्रज रहियत। पर पीरहिं तुम जानत उधोताते तुमसों कहियतः॥ चंदन चंद्र किरनि पावक सम मिलि मिलिह तन दहियतः। जागत याम जाता युगयामिीन जतन नहीं निरवहियत ॥ वासरहू या विरह सिंधुको कैसेहुः पार नलहियत । फिरि । फिरि वहइ अवधि अवलंबन बूडत ज्यों तृणगहियंत ॥ एक जुहार दरशनकी आशा तालगि यहु दुख-संहियत । मन क्रम वचन शपथ सुन सूरज और नहीं कछु चहियत ॥९६॥ हरिः विनु यह- विधिहै ब्रजजीजतु । पंकज वरपि वरषि उर ऊपर सारंग रिपु जल भीजतु ॥ वायस- अंजा शब्द की मिलवनि याही दुख तनु छीजतु। चंद्र चौथ जातं. गोपिनको मधुपापरखियशालीजंतुाताराप ति अरिके शिर ठाढी निमिष चैन नहिं कीजतु । सूरदास प्रभु वेगि कृपाकरि प्रगट दरशमोहि जीजतु ॥९७ ॥ हमारे धन जीवन कृष्णमुकुंद परमउंदार कृपानिधि कोमल पूरण परमानंद निठुर वचन सुनि फटतु हियो यो रहुरे अलि मतिमंद ।। ब्रज युवतिनको सुगम जनावत योग 'युक्ति सुखद्वंदः।। बहुतौ जाइ उनै उपदेशो सनकादिक स्वच्छंद । वारक हमें दरश देखरावो सुरश्याम नंदनंद ।। ९८॥ सारंग ॥ वैबातें यमुनातीरंकी। कबहुँक सुरति करतहैं मधुकर हरन हमारे चीरकी ॥ लीने वसन देखि ऊँचे द्रुम खकिचढनि बलवीरकी । हम ठाढी जलमाहि गुसांई खरी जुडाई नीरकी। दोऊ हाथ जोरिक मांगों दोहाई नंद अहीरकी। सूरदास प्रभु सब सुखदाता rajinagemecono m tamannermanenni